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________________ ૦૨ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन इन्द्रियॉ स्थिर भी रहती हैं, किन्तु तुम सदा बन्दरके समान चंचल रहते हो । कर्मबन्धनका कारण रे मन, तू ही है। विषयोंकी ओर दौड़ना तेरा सहज स्वभाव है ।" मुनिराजकी इन बातोंको सुनकर नमस्कार करता हुआ मन कहने लगा. "प्रभो ! मै अपना दोप समझ गया । आप कृपाकर मुझे यह बतलाइये कि परमात्मा कौन है और सुख किस प्रकार उपलब्ध होता है ।" मुनिराज - " राग-द्वेपके दूर हो जानेपर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाती है। परमात्मा दो प्रकारके हैं-सकल और निकल । परमात्मा के ये भेद राग-द्वेपके अभावकी तारतम्यता के कारण है । यद्यपि किसी भी परमात्मामे राग-द्वेप बिल्कुल नही रहता, परन्तु जर्जरित सस्कार और वासनाऍ इस जीवके साथ लगी रह जाती हैं, जिससे निकल परमात्मा शरीर के बन्धनको छोड़नेके उपरान्त ही यह जीव बन पाता है । " इस पञ्चेन्द्रिय सवादमे इन्द्रियोंके उत्तर- प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभाविक हैं । कविने प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रभावक ढगसे दिखाया है, जिससे पाठक प्रभावित हुए बिना नही रह सकता । सर्व प्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है नाक कहै प्रभु मैं बढी, और न बडो कहाय । नाक रहै पत लोकमें, नाक गए पत जाय ॥ प्रथम वदन पर देखिए, नाक नवल आकार । सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलसै संसारका, सो सब मुझ परसाद । नाना वृक्ष सुगन्धि को, नाक करै आस्वाद ॥ नाक पक्षको सुनकर कानका उत्तर कान कहै री नाक सुन, तू कहा करै गुमान । जो चाकर भागे चलै, तो नहिं भूप समान ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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