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________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १७१ मन्त्रसिद्धि और साहित्यके रसका आखादन मैं ही करती हूँ। मुझमे इतनी प्रवल शक्ति है कि मै शत्रुको मित्र बना सकती हूँ। बड़े-बडे मुनिराज और धर्मोपदेशक मेरे द्वारा ही धर्मका वर्णन करते हैं। स्वर्ग, नरक और मोक्षकी चर्चा मेरे द्वारा ही होती है।" बीचमें वात काटकर स्पर्गनेन्द्रिय बोल उठी-"अरी निहा! व्यर्थ अभिमान मत कर । तेरी ही कृपासे आपसमें युद्ध होता है, तू ही राजामहाराजो-द्वारा खून-खराबी कराती है । अभक्ष्य-भक्षण करना भी तेरा ही काम है । मैं अपने सम्बन्धमे अधिक क्या कहूँ-नाक, कान, ऑख सभी तो मेरे पॉवो पड़ते है, तुम सभी इन्द्रियाँ मेरी दासी हो। मेरे सामने तुमने व्यर्थमे झूठी बडाई कर पाप अर्जन किया है। मेरी महत्ता यही है कि मेरे बिना जप, तप, दान, पुण्य आदि कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। हाथोसे दान दिया जाता है, पॉवोसे तीर्थयात्रा की जाती है और मेरे ही द्वारा ससारके विपयोका अनुभव किया जाता है। जानती हो मेरे विना क्रिया नहीं और क्रियाकै बिना सुख नही, अतः मै सब इन्द्रियोंमें प्रधान हूँ।" ___इसी वीचमे मन बोल उठा-"अरी मूर्खा, तुम क्या अनाप-सनाप चकती हो । तुम्हारे समान धूर्त कोई भी नहीं है । रमणियोके प्रेमालिंगन से तुम्ही जीवको बॉधती हो, तपत्यासे विचलित करना तुम्हारा ही काम है । अतः तुमसे बडा और प्रधान मै हूँ। मेरे शुद्ध रहने पर ही सब कुछ शुद्ध रह सकता है। मैं ही उया, ममता आदिको करता हूँ, जितने भी विकार है, मुझमें ही उत्पन्न होते है। इन्द्रियोका सचालन मेरे ही द्वारा होता है । अतः मै सबका राजा हूँ और इन्द्रियों मेरी दासी हैं । मेरी प्रेरणाके बिना एक भी इन्द्रिय अपना कार्य नहीं कर सकती है। जीवके समस्त कार्योंका सचालन मेरे ही हाथमे है।" इसी बीच मुनिराज हंसते हुए कहने लगे-"अरे मूर्ख मन, तू क्यो गर्व करता है। जीवके पापोंकी अनुमोदना तुम्हारे ही द्वारा होती है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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