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हिन्दी-जैनगीतिकाव्य प्रस्तुत करता है, पर इसमे निराशा अन्वित नहीं है। विश्वका वास्तविक खारस्य दिखलाकर कवि आत्मानुभूतिको जगाता है। शरीरको चरखाका स्पक देकर निम्नपदकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति कितनी मर्मस्पर्शी है
मोटा मही कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा। अन्त भागमें ईधन होगा, 'भूधर' समझ सवेरा।
रागात्मिका वृत्ति और बोध-वृत्तिकै समन्वित स्पमे पूर्ण मानवताकी अभिव्यजना करनेवाले इनके अनेक पद है। इनमें कविने मानवताकी प्रतिष्ठाके लिए वासना और कपायोंके मधुमत्त समीरके स्पर्शसे बचानेकी आकाक्षा व्यक्त की है। कवि कहता है-"सुनि ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी" आदि।
राग विहाग, मनकी दुर्वलता तथा अह और इदकै सघर्षसे उत्पन्न कामवासनाका नियन्त्रण करता हुआ कवि चारित्रकी गोधशालामे नैतिक मन और नैविक बुद्धिकी आवश्यकताका निरूपण करता है
जगत जन जुवा हारि चले। टेक ॥ काम-कुटिल संग बाजी मॉडी, उन करि कपट छले । जगत० ॥३॥ चार कपायमयी जहू चौपरि पांसे जोग रले। इन सरवस उत कामनिकोड़ी इहविधि झटक चले ॥ जगत० ॥२॥
भूधरदासके पदोमें राग-विरागका गगा-यमुनीसगम होनेपर भी शृगारिकता नहीं है। विरहकी विविध अवस्थाओका निरूपण भी इनके पदोंमे नहीं हुआ है। भापाकी लाक्षणिकता और काव्योक्तियोकी विदग्धता यत्र-तत्र रूपों में विद्यमान है।
गीति-काव्यक मर्मज्ञ कवि द्यानतरायके पोंमें अन्तर्दर्शनकी प्रवृत्ति प्रधान रूपसे वर्चमान है। शब्द सौन्दर्य और शब्द-सगीतकी झकार सभी पदोमे सुनाई पड़ती है। इनके पदोंमे अतृप्ति नहीं, सतोप है, उन्माद