________________
१५६
हिन्दी-जैनसाहित्य-परिशीलन
होता है । धारणा, समता, क्षमा और करुणा ये चारों सखियाँ चारो ओर उपस्थित हैं तथा सकाम, अकाम निर्जरारूपी दासियों सेवा करती हैं . यहाँ सातों नयरूपा सुहागिनी बालाओके कंठकी मधुरध्वनि सुनाई पड़ती है। गुरुवचनका सुन्दर राग आलापा जा रहा है तथा सिद्धान्तरूपी ध्रुपद
और अर्थरूपी तालका सचार हो रहा है। सत्य श्रद्धानरूपी मेघमाला गुरु गर्जन करती हुई क्रोध, तृष्णा, ईर्ष्या आदि लुटेरोको भगा रही है। स्वानुभूतिरूपी विद्युत् जोरसे चमकती है और शीलरूपी शीतलवायु प्रत्येक सहृदयके हृदयको रस निमग्न कर देती है। तप करनेसे कर्म-कालिमा भस्म हो जाती है और अपरिमित आत्मशान्ति प्रकट हो जाती है। कविने उपर्युक भावकी कितनी सुन्दर अभिव्यनना की है
सहज हिंडना हरख हिडोलना, झूलत चेतन राव । जह धर्म कर्म संजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव । जहँ सुमन रूप अनूप मन्दिर, सरुचि भूमि सुरंग। तहँ ज्ञान दर्शन खंभ अविचल चरन आड अभंग ॥ मरुवा सुगुन पर नाय विचरत, भौंर विमल विवेक। व्यवहार निश्चल नय सुदंडी, सुमति पटली एक ।। उद्यम उदय मिलि देहिं झोटा, शुभ-अशुभ कल्लोल । पटकील जहाँ पट् द्रव्य निर्णय, अभय अंग अडोल। संवेग संघर निकट सेवक, विरत धीरे देत। आनन्द कन्द सुछन्द साहिब, सुख समाधि समेत । धारना समता क्षमा करुणा, चार सखि चहुँ ओर। निर्जरा दोउ चतुरदासी, करहिं खिदमत जोर ॥ जह विनय मिलि सातो सुहागिन, करत धुन झनकार। गुरु वचन राग सिद्धान्त धुरपद, ताल अरथ विचार । श्रद्धहन साँची मेषमाला, वाम गर्जन घोर । उपदेश वर्षा अति मनोहर, भविक चातक शोर ।