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आध्यात्मिक रूपक काव्य
कवि बनारसीदासने हिंडोलेका स्पक देकर आत्मानुभूतिकी जो इतनी सरस अभिव्यञ्जना की है वह अन्यत्र मिल सकेगी, इसमे सन्देह है | चेतन आत्मा स्वाभाविक सुखके हिडोलेपर आत्मगुणोके साथ क्रीडा करती रहती है। हिंडोलेका झुलना आनन्दप्रद, श्रान्ति और क्ान्तिको दूर करनेवाला एव नानाप्रकारसे मनमे हर्ष और प्रसन्नताको उत्पन्न करता है । यह हिंडोला समतल भूमिपर निर्मित किसी भव्य प्रासाद मे रस्सीके सहारे टाँगा जाता है । हिंडोला झूलते समय सौभाग्यवती नारियाँ चित्तको आह्लादित करनेवाले नानाप्रकार के मनोरम गायन गाती है तथा हर्षातिरेकसे तन-बदनको भूल अलौकिक आनन्दमें मन हो जाती है । हिडोलेके समय वर्षा भी होती है, घन-घटाएँ गर्जन - तर्जन करती हुई नानाप्रकारके भय उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी शीतल-मन्द- सुगन्धित वायु प्रवाहित होती है, जिससे हिंडोला भूलनेवालेका मन अपार आनन्दको प्राप्त होता है। वर्षा ॠतुमे हिंडोला झूला जाता है, अतः विद्युत्की चकाचौंध अन्धकारमें एक क्षीण प्रकाशकी रेखा उत्पन्न करती है । कविने इस छोटेसे वर्णनके सहारे जीवन और जीवन - विकासके सारे सिद्धान्तको अभिव्यञ्जित करनेमे अपूर्वं सफलता पायी है । कवि इसी स्पकको स्पष्ट करता हुआ कहता है---हर्षके हिंडोलेपर चेतन राजा सहज रूपमें झूमता हुआ झूलता है। धर्म और कर्मके सयोगसे स्वभाव और विभावरूप रस उत्पन्न होता है । मनके अनुपम महल्में सुरुचिरूपी सुन्दर भूमि है, उसमे ज्ञान और दर्शनके अचल खमे और चारित्रकी मजबूत रस्सी लगी है। यहाँ गुण और पर्यायकी सुगन्धित वायु बहती है और निर्मल विवेकरूपी भ्रमर गुञ्जार करते है । व्यवहार और निश्चय नयकी दंडी लगी है । तुमतिकी पटरी बिछी है और उसमे छह द्रव्यकी छह कीले लगी है । क्रमका उदय और पुरुषार्थ दोनो मिलकर हिडोलेको हिलाते है । सवेग और सवर दोनों सेवक सेवा करते है तथा व्रत ताम्बूल आदि देते है, जिससे आनन्दस्वरूप चेतन अपने आत्मसुखकी समाधिमे निश्चल
अध्यात्म
हिंडोलना
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