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________________ १५७ आध्यात्मिक रूपक काव्य अनुभूति दामिन दमक दीसै, शील शीत समीर। तप भेद तपत उछेद परगट भाव रंगत चीर ॥ यद्यपि अध्यात्म-हिंडोलनाकी भाषा साधारण है, किन्तु कविने रमणीयतामें पवित्रताको इस प्रकार मिला दिया है जिससे आत्म-ज्योति फूटती हुई दिखलायी पडती है। आत्माकी मधुर स्मृति जाग्रत हो जानेसे मानव आत्माके साथ आनन्दका झूला झूलने लगता है अर्थात् अशुद्ध आत्मा शुद्ध होनेकी ओर अग्रसर होती है। यह भैया भगवतीदासका सुन्दर आध्यात्मिक रूपक-काव्य है। वस्तुतः यह आत्मचेतनाकी वाणी है । कवितामें हृदयकी कोमलता, और कल्पनाकी मनोरमता और आत्मोन्मुखी तीव्र अनुपर भूति है | कृति सुरम्य, विचित्रवोंसे सयुक्त, अलौकिक - आनन्द देनेवाली और मनोज है । आन्तरिक विचारो और अनुभूतियोका सम्मिश्रण इस कृतिमे इतना अद्भुत है, जिससे यह कृति मानव अन्तस्तलको स्पर्श किये बिना नही रह सकती है। विकारोको पात्र कल्पना कर कविने इस चरित्रमे आत्माकी श्रेयता और प्रासिका मार्ग प्रदर्शित किया है। सुबुद्धि और कुबुद्धि ये दोनो चेतनकी भाएं थीं। अतः कविने इन तीनोंका वार्तालाप आरम्भमे कराया है। सुबुद्धि चेतन आत्माकी कर्म या सयुक्त अवस्थाको देखकर कहने लगी-"चेवन ! ७ तुम्हारे साथ यह दुष्टोका संग कहाँसे आ गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व खोकर भी सजग होनेमे विलम्ब करोगे। जो व्यक्ति सर्वस्व खोकर भी सावधान नहीं होता है, वह जीवनमे कभी मी उन्नतिशील नहीं हो पाता है । नाना प्रकारके व्यक्कियोके सम्पर्क एव विभिन्न प्रकारकी परिस्थितियोंके बीच गमन करते हुए भी वास्तविकताको हृदयंगम करनेका प्रयल अवश्य होना चाहिये।" चेतन-"ह महाभागे! मै तो इस प्रकार फंस गया हूँ जिससे इस
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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