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पदोंका तुलनात्मक विवेचन
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जा दिन मन पंछी उडि जैहैं। ता दिन तेरे तन-तरुवरके, सबै पात झरि जैहैं । घरके कहें, बेगि ही काढौ, भूत भये कोड खैहैं। जा प्रीतम सों प्रीत घनेरी, सोऊ देखि डरैहैं ।
रे मन जन्म अकारथ जात । बिछुरे मिलन बहुरि कब ढहै, ज्यो तरुवरके पात ॥ सन्निपात कफ कण्ठ-विरोधी, रसना दूरी बात । प्रान लिये जम जात मूढमति, देखत जननी तात ॥
कवि सूरदासने ऊपर जिस प्रकारका ससार, गरीर और विषयोके सम्बन्धमे चित्रण किया है, ठीक वैसी ही भावाभिव्यञ्जना जैन कवियोने की है। जैन-पद-रचयिताओने वताया है कि हम स्वभावसे सुखी, ज्ञानी तथा सहज आनन्द स्प चेतन हैं । अपने इस स्वभावके भूल जानेके कारण ही हम दुःखी हो रहे है | शरीर जड है, विश्वके अन्य पदार्थ भी जड़ हैं। यद्यपि चैतन्य आत्मके गुणोकी अभिव्यक्ति शरीर आदि निमित्तोके आधीन है, पर स्वल्पतः आत्मा इनसे भिन्न है। मानवको दुःख कर्मबन्धके कारण आत्माके विकृत हो जानेसे है। आत्माकी राग-द्वेष रूप परिणति ही कर्मवन्धका कारण है, अतः इस शरीरको परपदार्थ समझ कर शुद्धात्म-तत्त्वको प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिए। व्यर्थ ही मानव रागद्वेष रूप परिणतिमे आसक्त रहता है तथा इसी आसक्तिमे इस अमूल्य जीवनको व्यतीत कर देता है । सभी जैन कलाकारोंने जीवन और जगत्के विविध रहस्योका उद्घाटन सहृदय सरस कविके रूपमे किया है, केवल दार्शनिक वनकर नहीं, यद्यपि दर्शनकी सबसे बडी थाती उनके पास थी। इसी कारण इनके जीवन सम्बन्धी इन विश्लेपोंमे ठोस ससारकी वास्तविकता कल्पना और मावनाके मनोरम आवरणमें निहित है । जीवनके