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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उसे नाना प्रकारसे फटकारते हुए आत्माकी ओर उन्मुख किया है। नाना प्रकारकी आकांक्षाएं और तृष्णाएँ ही इस मनको आकृष्ट कर विपर्योम मलग्न कर देती हैं, जिसमे भोला असहाय मानव विषयेच्छायों की अग्निमें जलता रहता है। अनादिकालसे मानव विकार और वासनाओंके आधीन चला आ रहा है, जिससे इमे जीवनकी विविध प्रवृत्तियोंके अनुशीलनका अवसर ही नहीं मिला है। कवि सूरदासने मनको समझाते हुए अहकार और ममकारकी भावनामे मनको दूर रखनेकी बात कही है । वास्तवमें अध्यात्म-आनन्द तभी प्रात हो सकता है, जब मन और हृदयका परिष्कार कर लिया जाय । इस स्वार्थी संसारके वाह्य रुपको देखकर मनुष्य अपनेको भूल जाता है, इसी कारण वह मणिक इन्द्रिय-जन्य सुखोंमें आनन्दका अनुभव करता है। चिरन्तन आनन्द काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईयां, मात्सर्य आदि विकारोक परास्त करने पर ही प्राप्त हो सकता है। सत्य, सन्तोप और पवित्रता तमी आ सकती है, जब मानव अपनी आत्माम जान और ध्यानकी अग्निको प्रज्वलित करे | ममत्व भाव ही वस्तुतः अनेक दुःखों की जड़ है। ममता के कारण ही पर-वस्तुओको मानव अपनी समझता है। निज प्रकृतिमें दोप उत्पन्न कर अपनेको दुःखी बनाता है। प्रयोजनीभूत तत्त्वोंका चिन्तन और मनन न कर शरीरको ही अपना समझ लेता है। कवि सूरदास मानवके अचान भ्रमको दूर करता हुआ कहता है
रेमन मूरख, जन्म गॅवायो। कर अभिमान विषय-रस राँच्यो, स्याम सरन नहिं आयो । यह संसार फूल समर को, सुन्दर देखि भुलायो। चाखन लाग्यो रुई गई उड़ि, हाथ कछु नहिं आयो । कहा भयो अब के मन सोचे, पहले नाहिं कमायो । कहत 'सूर' भगवन्त-भजन दिनु, सिर धुनि धुनि पछितायो ।