________________
८४
हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
आतमरस चख्यो मैं अद्भुत, पायो परम दयाल | अब मैं०॥२॥ सिद्ध समान शुद्ध गुण राजन, सोमरूप सुविशाल | भघ मैं ० ॥३॥
भैया भगवतीदासके पर्दोंमे जितनी सुन्दर अध्यात्म तत्त्वकी अभिव्यंजना हुई है उतनी मानवीय राग-द्वेपकी नहीं । श्रृगारिक भावना के अरुण रूपोंका प्रायः अभाव है । भापामे नाद साम्य और अनुप्रासोकी बहुलता श्रवण-सुखद है ।
आनन्दघनके पद परिचय
आनन्दघनके पद कबीरदासके समान आध्यात्मिकतासे ओतप्रोत हैं । यह पहुॅचे हुए महात्मा और आत्मरसिक कवि थे । इस कारण इनके पर्दो सच्ची अनुभूति विद्यमान है। प्रेत-आत्माके रूपमाधुर्यका दर्शन सर्वत्र कवि करता है । बाताबरणके प्रत्येक कणसे उसे आत्मानुभूतिकी झलक मिलती है। और समीक्षा यद्यपि कविने आत्माको सर्वत्र व्यापक रूपमे नही देखा है, शरीर प्रमाण ही माना है, फिर भी उसे पानेके लिए सच्ची प्रेयसीके समान आकुल है। प्रातः- समीर अपनी नवीन सुरभिसे प्रत्येक अग- प्रत्यगको सुरभित करता हुआ कविको आत्मानुभूतिमे प्रेरक प्रतीत होता है ।
स्वानुभूतिका प्रादुर्भाव होते ही कवि अनुभव करता है कि जन्ममरणके कारण राग-द्वेपके भस्म हो जानेपर ही आवागमन के दुखसे छुटकारा मिल सकता है; आत्मा अजर है, अमर है, इसकी उपलब्धि रत्नत्रयके द्वारा ही सम्भव है । अतएव सत्यद्रष्टा कविकी पारदर्शिका आँखे जगके भौतिक आवरणको भेदती हुई अन्तस्तत्त्वोपर स्थित होती हैं। आसवाणीके द्वारा पार्थिकताको ललकारते हुए शाश्वत आनन्दकी बात कहता है । इसलिए इनके पदोंमें प्रधानतः आशा, उल्लास और चेतनाका अभिनन्दन विद्यमान है । कवि अपने अन्तस्में आत्मतत्त्वकी महत्ताका अनुभव कर आध्यात्मिक धरातल पर मानव मात्रका उत्कर्प दिखलाता है तथा