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________________ हिन्दी - जैन - गीतिकाव्य હવે आत्मालोचन एव आराध्य के प्रति दृढतर विश्वास विषयोंमे इनके पदोको विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवनके रहस्योंसे सदा आँखे बन्द किये रहा । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको पानेका प्रयास ही नही किया । पार्थिव सौन्दर्य के प्रति मानव नैसर्गिक आस्था रखता है, राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है | विविध नाम-रूपात्मक इस जगत्से पृथक् होकर प्रकृत भावनाओका सयम, दमन और परिष्करण करना ही प्रत्येक व्यक्तिका जीवन लक्ष्य होना चाहिए । इसी कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतनामें सामूहिक चेतनाका अध्यारोप कर कवि कहता हैभरे तैं जु यह जन्म गमायो रे, अरे तें ॥टेक॥ पूरब पुण्य किये कहुँ अतिही, वातैं नरभव पायो रे । देव धरम गुरु ग्रन्थ न परसै, भटकि भटकि भरमायो रे ॥ अरे० ॥ १ ॥ फिर तोको मिलिबो यह दुरकभ, वश दृष्टान्त बतायो रे । जो चेतै तो चेत रे भैया, तोको कहि समुझायो रे ॥अरे ० ॥२॥ आत्मालोचन -सम्बन्धी पदोमे कविने राग-द्वेष, इर्षा - घृणा, मद-मत्सर आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गूढ़ अध्यात्मकी अभिव्यजना की है। यह आलोचना केवल कविहृदयकी नही बल्कि समस्त मानव समाजकी है । मानव मात्र अपने विकारी मनका परिशोधनकर मंगल प्रभातके दर्शन करनेकी क्षमता प्राप्त कर सकता है । बिनाशीक ससारके स्वार्थमयी सम्बन्धोकी सारहीनता दिखलाता हुआ कवि राग-द्वेषादि विकारोंको दूर करनेकी बात कहता है । जव वह इस ससारके भ्रम-जालकी वास्तविकतासे परिचित हो जाता है तो दृढ़ आत्मनिष्ठा प्रकट करता हुआ देव गन्धार राग अलापने लगता हैra मैं छॉडयो पर जंजाल, अब मैं ॥ टेक ॥ लग्यो अनादि मोह भ्रम भारी, तज्यो ताहि तत्काल । अब मैं ० ॥ १ ॥ •
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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