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________________ ४५. हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य ऐन्द्रियिक आनन्दको निकृष्ट और हीन वतलाकर इन्द्रियातीत अलौकिक आनन्दकी अभिव्यञ्जना करता है। कविने निम्न पदमे अपनी अमरताका भाव सत्य और वस्तु सत्यसे भिन्न कितना सुन्दर विवेचन किया है अव हम अमर भये न मरेंगे ॥टेक॥ या कारन मिथ्यात दियौ तज, क्योकर देह धरेंगे ॥१॥ राग-दोष जग बन्ध करत हैं इनको नाश करेंगे। मस्यो अनंत काल ते प्राणी, सो हम काल हरेंगे॥२॥ देह विनाशी हूँ अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासी हम थिरवासी, चोखे है निखरेंगे ॥३॥ मयो अनन्त वार बिन समझे, अबसो सुख बिसरेंगे। 'मानन्द धन' निपट-निकट अक्षर दो, नहिं सुमरै सो मरेंगे ॥an यद्यपि इसी आशयका एक पद कवि द्यानतरायका भी मिलता है, तो भी इस पद्यका माधुर्य विचित्र है। कविने वैज्ञानिक तथ्योंके आधारपर आत्मानन्दको व्यक्त किया है। इनके समस्त पद तीन वर्गोंमें विभक्त किये जा सकते है। प्रथम वर्गमें उन पदोको रक्खा जा सकता है, जिनमे रूपको द्वारा आत्मतत्वका विश्लेषण एक सहृदय और भावुक कविके समान किया गया है। कविने इन पर्दोमे मधुर रागात्मक सम्बन्धोको उद्घाटित करते हुए मिथ्यात्वके निष्कासनपर अधिक जोर दिया है। आत्मानुभूति या स्वानुभूतिमे प्रवल वाधक कारण यह मिथ्यात्व ही है, अतः अनेक रूपकोद्वारा इस आत्म-अशुद्धिके कारणका विश्लेषण किया गया है। । दूसरी श्रेणीमे वे पद हैं जिनमें घरेल दैनिक व्यवहारमे आनेवाली वस्तुओंके प्रतीकों द्वारा संसारकी क्षणभगुरता दिखलाकर आत्म-तत्त्वका सश्लिष्ट चित्र प्रकट किया है। विनय और चन्दना सम्बन्धी पद इस कोटिमे आते है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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