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प्रथमाध्याय हिन्दी-जैन-साहित्यका प्रादुर्भाव प्राचीन परम्परामे साहित्यको सनातन सत्यकी उपलब्धिका साधन माना है। इसीलिए कविषय मनीषियोंने "आत्म तथा अनात्म भावनामोकी भन्य अभिव्यक्तिको साहित्य कहा है। यह साहित्य किसी देश, समाज या व्यक्तिका सामयिक समर्थक नहीं, बल्कि सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमोसे प्रभावित होता है। मानवमात्रकी इच्छाएँ, विचारधाराएँ
और कामनाएँ साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति हैं। इसमे हमारे वैयक्तिक हृदयकी मॉति सुख-दुःख, आशा-निराशा, भय-निर्भयता एव हास्य-रोदनका स्पष्ट सन्दन रहता है" आन्तरिक रूपसे विश्व के समस्त साहित्योमे भावो, विचारो और आदीका सनातन साम्य-सा है। क्योंकि आन्तरिक भावधारा और जीवन-मरणकी समस्या एक है। प्राकृतिक रहस्योंसे चकित होना तथा प्राकृतिक सौन्दर्यको देखकर पुलकित होना मानवमात्रके लिए समान है। अतएव साहित्यमे साधना और अनुभूतिके समन्वयसे समाज और ससारसे ऊपर सत्य और सौन्दर्यका चिरन्तन रूप पाया जाता है। इसीकारण साहित्यकार चाहे वह किसी भी जाति, समाज, देश और धर्मका हो अनुभूतिका भाण्डार समान रूपसे ही अर्जित करता है। वह सत्य और सौन्दर्यकी तहमें प्रविष्ट हो अपने मानससे भगवराशिरूपी मुक्ताओको चुन-चुनकर शब्दावलीकी लड़ीमे शिवकी साधना करता है।
सौन्दर्य-पिपासा मानवकी चिरन्तन प्रवृत्ति है। जीवनकी नश्वरता और अपूर्णताकी अनुभूति सभी करते है, सभी इसका मर्म जाननेके लिए उत्सुक रहते हैं, इसी कारण साहित्य अनुभूतिकी प्राचीपर उदय लेता है। मानवके भीतर चेतनाका एक गूढ़ और प्रबल आवेग है, अनुभूति इसी आवेगकी, सच्ची, सजीव और साकार लहर है। इस अनुभूतिके लिए