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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
व्यक्ति, धर्म, जाति, समाज और देशका तनिक भी बन्धन अपेक्षित नही । इसी कारण मनीपियोने आत्म-दर्शनको ही साहित्यका दर्शन माना है, अपनेमें जो आभ्यन्तरिक सत्य है, उसे देखना और दिखलाना साहित्यकारकी चरम साधना है ।
जैन - साहित्य स्रष्टाओने अखण्ड चैतन्य आनन्दरूप आत्माका ही अपने अन्तस्में साक्षात्कार किया और साहित्यमे उसीकी अनुभूतिको मूर्त रूप प्रदान कर सौन्दर्यके शाश्वत प्रकाशकी रेखाओ द्वारा वाणीका चित्र अकित किया । इन्होने अपनी अनुभूतिको आत्म-साधनाका विषय बनाकर चिरन्तन मंगल- प्रभातका दर्शन किया । इन्होंने आभ्यन्तरिक धरातलमे अंकुरित अशान्ति एवं असन्तोषका उपचार ऊपरी सतहपर लगे दोषोंके परिमार्जनसे न कर प्रस्फुटित अनुभूतिके झरनेमे मज्जन कर, किया ।
जैन साहित्यकारोने अधूरी और अपूर्ण मानवताके मध्यमे उस सक्रान्ति एवं उथल-पुथल के युगमें, जब कि भारतकी राजनीतिक, सास्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों प्रबल वेगके
परम्परा
साथ परिवर्तित होती जा रही थीं, खडे होकर पूर्ण मानवका आदर्श प्रस्तुत किया। जैनाचार्य आरम्भसे ही लोक भाषामे मानवताका पाठ पढाते आ रहे है । भगवान् महावीरका उपदेश भी उस कालकी सार्वजनीन अर्धमागधी भाषामें हुआ था । अतः सातवी-आठवीं शती में जैन-लेखकोने प्राकृत और संस्कृतका पल्ला छोड प्रताड़ित और बिखरी हुई मानवताको तत्कालीन लोक- प्रचलित अपभ्रंश भाषामे सुरक्षित रखनेका प्रयास किया ।
नवीं शतीमें जन-साधारणकी भाषा बन जानेके कारण अपभ्रशका प्रचार हिमालयकी तराईसे गोदावरी और सिन्धसे ब्रह्मपुत्र तक था । यह जीवट और भाव-प्रवण में सक्षम भाषा थी, अतः जैनाचायोंने मानवके आदर्शोंके प्रचारके लिए तथा मूर्छित मानवताको सचेतन बनानेके लिए इस भाषा में प्रभूत साहित्य रचा । स्तोत्र-काव्य, कथा- काव्य, महाकाव्य