SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सरसति मति दिड अम्ह अति धणी, सरस सुकोमल वाणि। श्रीमजिनहंस सुरि गुरु गाइसिउँ, मन लीणउ गुण नाणि ॥ नति यधावइ गीत गावइ, पुण्यकलस धरह सिरे । सिंगारसारा सब नारी करइ, उच्छव घर घरे॥ श्री सिकंदर चित्त मानिपट, किरामत काई कही। पाँच सह वन्दी बाखरसी, छोढव्या इण गुरु सही ॥ कुछ गीताम बताया गया है कि मुगल सम्राट् अकवरके मनम जिनचन्द्र सूरिके दर्शनकी बड़ी उत्कण्ठा थी, अनः उन्होने सूरीश्वरको गुजरातसे बडे आग्रह और सम्मानसे बुलाया। सूरीश्वरने आकर उन्हें उपदेश दिया और मम्राट्ने उनकी बड़ी आवभगत की। जब वादगाह सलेमशाह 'दरमबिया' दीवान पर कुपित हो गये थे तो इन्हीं सूरीश्वरने गुजरातसे आकर बाद गाइके क्रोधको भान्त किया और धर्मकी महिमा बढ़ाई । यह सूरीश्वर मुलतान भी गये थे, और वहॉके खानमलिक-द्वारा इनका सम्मान किये जानका भी उल्लेख है। ___ इन गीतोंमें युग-चेतनाके स्पष्ट दर्शन होते हैं। उस युगके मानवकी विराट् व्यथा, हिमाके चार और उतार-चढ़ाव, साम्प्रदायिक संकीर्णता, ग्रामीणांक हृदयकी ऑकी एवं देशको यथार्थ स्थितिका विश्लेपण इन गीनोंका प्राण है। साम्प्रदायिक गीताम भी रचयिताऑने मानव-समानके हितोंकी पूरी विवेचना की है। ऐमा शायद ही कोई गीत होगा, निसम चेतना और स्फूर्ति न विद्यमान हो। अपभ्रंशसे प्रभावित पुरानी रानस्थानी भाषा होने के कारण आनके पाठक इन गीतोंमे शायट रम न सके, परन्तु भारतीय संस्कृति और सभ्यताका परिचय पाने तया युगविधायक १. ऐतिहासिक न काव्य-संग्रह पृ०५०, ८१,८२, ९६ । -
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy