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________________ १११ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन के भावोंम साम्य-सा है। अनेक पदोमे तो केवल शन्दोंका अन्तर है। कही-कही कबीरके दो-तीन पदोंके भाव दौलतराम, भूधर, बुधजनके एक पदमे आ गये हैं और एकाध स्थलपर जैन-पद-रचयिताओंके दो-तीन पदोंके भाव कवीरके एक ही पदमे अभिव्यक्त हुए है । कबीरका चरखा और तंबूरेका रुपक भूधरदासके चरखाके रूपकसे कितना साम्य रखता है चरखा चले सुरत विरहिन का। काया नगरी बनी अति सुन्दर, महल बना चेतन का। सुरत भाँवरी होत गगन में, पीदा ज्ञान रतन का ॥ मिहीन सूत विरहिन काते, माझा प्रेम भगति का। कहैं 'कबीर' सुनो भई साधो, माला गथो दिन रैन का । . साधो यह तन ठाठ सॅचूरे का। खंचत तार मरोरत खूटी, निकसत राग हरे का। टूटे तार बिखरि गई खूटी, हो गया धूरम धूरे का ॥ या देही का गरब न कीजै, उडि गया हंस तंबूरे का। कहत कबीर सुनो भई साधो, अगम पंथ कोइ सूरे का ॥ भूधरदास कहते हैं चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना। पग खटे द्वय हालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पाँखड़ी पसली, फिरे नही मनमाना ॥ चरखा० ।। रखना तकनी ने बल खाया, सो अव कैसे खूटे। सबद सूत सूधा नहिं निकस, घडी घडी पल टूटै ॥ चरखा० ॥ आयु माल का नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहै, वैद बादई हारे । चरखा० ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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