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________________ रीति-साहित्य २२९ 1 अधिक तर्कसंगत है । क्योकि शोभा शब्दमे जो गूढ़ अर्थ और व्यापक दृष्टिकोण निहित है, वह रतिमें नहीं । रतिको स्थायी भाव मान लेनेसे सबसे बडी आपत्ति यह आती है कि एक ही विपय-भोगसम्बन्धी चित्रके देखनेसे मुनि, कामुक और चित्रकारके हृदयमे एक ही प्रकारकी भावनाएँ उद्बुद्ध नहीं हो सकती । अतएव एकमात्र रतिको श्रृंगार रसका स्थायी भाव नही माना जा सकता । शोभाका सम्बन्ध मानसिक वृत्तिसे होनेके कारण इसका विशाल और व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाता है। शोभासौन्दर्य की ओर मन, वचन और कायकी एकनिष्ठता होनेपर ही शृंगार रसकी अनुभूति होती है । अतएव सौन्दर्यमे ही चित्तवृत्ति तल्लीन होती है, जिससे श्रृगारका अनुभव होता है । हास्य रसका स्थायी भाव आनन्द मान लेनेसे इस रसकी उत्पत्ति अधिक वैज्ञानिक मालूम पड़ती है। हँसी तो कभी-कभी ऊबकर या खीझकर भी आती है, पर इस हॅसीसे हास्यरसकी उत्पत्ति नही हो सकती । हँसना कई प्रकारका होता है, दूसरोको अवाञ्छनीय मार्गपर जाते देखकर दुःखकी स्थितिमे हँसी आ जाती है, पर यहाँ हास्य रसकी अनुभूति नहीं है । क्योकि इस प्रकारकी हॅसीमे एक वेदना छिपी रहती है। कभी-कभी कौतूहल होनेपर भी किसी ऊटपटाग कार्यको देखकर यो ही हँसी आ जाती है, परन्तु हास्य रसकी अनुभूति नही होती । इस प्रकारके स्थलोम प्रायः करुणावृत्ति हमारे हृदयमे उदबुद्ध होती है तथा करुण रसकी हो अनुभूति होती है। आनन्द स्थायी भाव स्वीकार कर लेनेपर उक्त दोष नही आता । * जिन मनोरंजन और भोलेपनसे परिपूर्ण शुभ सवादोंको सुनते है और जिन प्रवृत्तियों के द्वारा किसीकी हानि नहीं होती तथा मनबहलावका वातावरण तैयार हो जाता है, उस समय आनन्दकी अवस्थामे हास्य रसको उत्पत्ति होती है । अभिप्राय यह कि हास्यरसका सम्बन्ध वस्तुतः आनन्दसे हैं, कैवल हाससे नहीं । जबतक अन्तस्मे आनन्दका सचार नहीं होगा,
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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