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________________ २२८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन या साहित्यमे असाधारण आनन्दको सचारित करनेवाला रस अवश्य रहता है। निश्चय नयकी शैलीके अनुसार आत्मानुभूति ही रस है तथा साहित्यमे यही आत्मानुभूति-विद्यमान रहती है। यद्यपि मानसिक विकार और भाव जो काव्य-द्वारा उबुद्ध होते है, विरस है; परन्तु लोकिक दृष्टिसे ये भी आनन्दानुभूतिको ही उत्पन्न करते हैं। जैन हिन्दी रीति साहित्यम महाकवि बनारसीदासने अपने मौलिक चिन्तन द्वारा रसॉके स्थायी भावोंके सम्बन्धमें नवीन प्रकाश डाला है। प्राचीन परम्परासे प्राप्त स्थायी भावोंकी अपेक्षा बनारसीदासको कल्पना कितनी वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण है, यह निम्न विवेचनसे स्पष्ट है। महाकविने भंगार रसका स्थायी भाव शोमा, हास्य रसका मानन्द, करुण रसका कोमलता, रौद्र रसका क्रोध, धीर रसका पुरुषार्थ, भयानक रसका चिन्ता, बीभत्स रसका ग्लानि, अद्भुतका आश्चर्य और शान्त रसका स्थायी भाव वैराग्य माना है । यद्यपि रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और शान्त रसके स्थायी भात्र प्राचीन परम्परासे साम्य रखते हैं, पर शेष रसांके स्थायी भावोंकी उन्नावना विल्कुल नवीन है। शृंगार रसका स्थायी भाव शोमा रति स्थायी भावकी अपेक्षा १.योमा में शृंगार वसे वीर पुरुषारयमें, कोमल हिये में करुणा वखानिये। आनन्द में हास्य रुण्ड मुण्ड में विराजे रुद्र, वीभत्स तहाँ जहाँ गिलानि मन आनिये ॥ चिन्ता में भयानक अथाहता में अद्भुत, मायाकी अरुचि तामें शान्त रस मानिये। ये ई नव रस भव रूप ये ई भावरूप इनको विलक्षण सुदृष्टि जगे जानिये ॥ २. देखें नैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १६ किरण ।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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