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________________ : ! हिन्दी - जैन गीतिकाव्य रे मन ! कर सदा सन्तोष । जातें मिटत सब दुख दोष ॥ रे मन० ॥ टेक ॥ १ ॥ बढत परिग्रह मोह बढ़ावत, अधिक तृष्णा होत | बहुत ईंधन जरत जैसे, अगनी ऊँची ज्योति है ॥ रे मन० ॥२॥ लोभ लालच मूढ जनसों, कहत कन्चन दान | फिरत आरत नहिं विचारत, धरम धनकी हान ॥ रे मन० ॥३॥ नारकिनके पाँव सेवत, सकुच मानत संक । ज्ञान करि बूझे 'बनारस', को नृपति को रंक ॥ रे मन० ||१|| जब कवि ससारके त्वाथोंसे ऊब गया, नाना उपचार करनेपर भी उसके मनका साय नही हटा तो वही अपने मनकी आलोचना करना हुआ आकाक्षा व्यक्त करता है । कविकी आकाक्षा वैयक्तिक नहीं, अपितु सार्वजनीन है । सारग रागकी मधुरिमा हृदयको रससिक्त कर देती है तथा अन्तस्मै आत्मबुद्धि जाग्रत करती है। कविवर कहता है -- दुविधा कब जैहै या मनकी ॥ दुवि० ॥ कब जिननाथ निरंजन सुमिरों, तजि सेवा जन-जनकी ॥ कय रुचिसों पीवँ हम चातक, बूँद अखयपद धनकी ॥ कव शुभ ध्यान धरौ समता गहि, करूँ न मलता तनकी ॥ कय घट अन्तर रहे निरन्तर, दिदता मुगुरु कब सुख लहीं भेद परमारथ, मिटै धारना दुविधा ||१|| ८१ दुविधा ||२|| वचन की । धन की ॥ दुविधा० ॥३॥ कब घर छोटि होहुँ एकाकी, लिये लालसा यन की । ऐसी इसा होय कब मेरी, हाँ बलिन्यलि या उन की ॥ दुपिया• ॥४॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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