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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
योग्यता विद्यमान है; अपने पुरुपार्थकी हीनाधिकता के कारण आत्माएँ भिखारी या भगवान् बननेकी ओर अग्रसर होती है ।
आत्माकी शुद्धिके लिए राग-द्वेपको हटाना आवश्यक हैं तथा रागद्वेपको हटानेके लिए दृढ़तर प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ है । यह पुरुपार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है । प्रवृत्ति-मार्ग कर्मबन्धका कारण है और निवृत्ति-मार्ग अबन्धका । यदि प्रवृत्ति-मार्गको घूम-घुमावदार गोलघर माना जाय, जिसमे कुछ समय के पश्चात् गमन 'स्थान पर इधर-उधर दौड़ लगानेके अनन्तर पुनः आ जाना पडता है, तो निवृत्ति-मार्गको पक्की सीधी ककरीली सीमेंटकी सडक कहा जा सकता है, जिसमें गन्तव्य स्थानपर पहुँचना सुनिश्चित है, पर गमन करना कष्टसाध्य है। जैन दर्शन निवृत्ति-प्रधान है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय ही निवृत्ति-मार्ग है । जीवादि सातों तत्त्वोकी सच्ची श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन, इन तत्त्वोंका सच्चा ज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मतत्त्वको प्राप्त करनेका सम्यक् आचरण ही सम्यक्चारित्र कहलाता है। इस मार्गपर आरूढ़ होनेसे ही जन्म• मरणका दुःख दूर हो निःश्रेयस् ग्रा मोक्षकी प्राप्ति होती है ।
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जैन-दर्शनम आत्माकी तीन अवस्थाएँ मानी गयी है-वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जब अज्ञान और मोहकी प्रवलताकै कारण आत्मा वास्तविक तत्त्वका विचार न कर सके तथा कल्याणकी दिशामें 'विल्कुल न बढ़ सके, बहिरात्मा कही जाती है । जब सच्चा विश्वास उत्पन्न ' हो जाता है, विवेकशक्तिके जागृत होनेसे राग-द्वेपके सस्कार क्षीण होने लगते हैं, तव अन्तरात्मा कही जाती है और आत्मिक शक्तिको आच्छादित 'करनेवाले कारणोंके क्षीण हो जानेपर परमात्मा अवस्थाका प्रादुर्भाव होता • है। आत्माकी ये तीनो अवस्थाएँ रत्नत्रयके अभाव, प्रादुर्भाव और विकासके 'कारण होती हैं। निष्कर्ष यह है कि जब तक रत्नत्रयकी उत्पत्ति नहीं होती,
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आत्मा अपने स्वरूपको भूलकर अन्यथा रूपसे प्रवृत्त होती है । रत्नत्रयका