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दार्शनिक माधार
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प्रादुर्भाव हो जानेपर आत्मा स्वोन्मुखरूपसे प्रवृत्त करती है, जिससे रागद्वेषके सस्कार शिथिल और क्षीण होने लगते है तथा रत्नत्रयके परिपूर्ण होनेपर आत्मा परमात्मा अवस्थाको प्राप्त हो जाती है। अतः आत्म गोधनमें सम्यक् श्रद्धा और सम्यग्ज्ञानके साथ सदाचारका महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
जैन - सदाचार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप है । इन पाँचो व्रतोमे अहिंसाका विशेष स्थान है, अवशेष चारो अहिंसाकै विभिन्न स्प हैं । कपाय और प्रमाद - असावधानीसे किसी जीवको कष्ट पहुँचाना या प्राणघात करना हिंसा है, इस हिंसाको न करना अहिसा है । मूलतः हिसाके दो भेद है— द्रव्यहिसा और भावहिसा । किसीको मारने या सता के भाव होना भावहिंसा और किसीको मारना या सताना द्रव्यहिसा है । भावोंके कलुपित होनेपर प्राणघातके अभाव में भी हिंसा - दोष लगता है ।
अहिसा की सीमा गृहस्थ और मुनि - साधुकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न है। गृहस्थकी हिसा चार प्रकारकी होती है—संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । विना अपराधकै जान-बूझकर किसी जीवका वध करना सकल्पी हिंसा है। इसका दूसरा नाम आक्रमणात्मक हिसा भी है । प्रत्येक गृहस्थको इस हिसाका त्याग करना आवश्यक है। सावधानी रखते हुए भी भोजन बनाने, जल भरने, कूटने-पीसने आदि आरम्भ-जनित कार्यों में होनेवाली हिंसा आरम्मी; जीवन निर्वाहके लिए खेती, व्यापार, शिल्प आदि कायामे होनेवाली हिंसा उद्योगी एवं अपनी या परकी रक्षाके लिए होने'वाली हिंसा विरोधी कही जाती है। ये तीनों प्रकारकी हिंसाऍ रक्षणात्मक हैं । इनका भी यथाशक्ति त्याग करना साधकके लिए आवश्यक है । 'स्वयं जियो और अन्यको जीने दो' इस सिद्धान्त वाक्यका सदा पाल्न करना सुख-शान्तिका कारण है । राग, द्वेष, घृणा, मोह, ईर्ष्या आदि विकार हिंसा में परिगणित है ।
जैनधर्मके प्रवर्तकोने विचारोको अहिसक बनानेके लिए स्याद्वाद - विचार समन्वयका निरूपण किया है। यह सिद्धात आपसी मतभेद अथवा पक्षपात