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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जैन-कलाकारोने मध्यकालमे इसी देशी भाषाका आधार लेकर अपने आन्तरिक भावोकी अधिक-से-अधिक स्पष्ट, मनोरजक और प्रभावपूर्ण ढगसे अभिव्यखना की । जीवनका चिरन्तन सत्य, मानव कल्याणकी प्रेरणा एव सौन्दर्यकी अनुभूतिको अनुपम, मधुर देशी भापामे ही प्रकट करना अधिक उपादेय समझा गया । अतः प्रस्तुत प्रकरणमे देशी भाषा-अपभ्रश, पुरानी हिन्दी, ब्रजभाषा और राजस्थानीके काव्य साहित्यकी विवेचना की जायगी।
लोक-भाषा होनेके कारण देशी भाषामे आरम्भमें गीत ही रचे गये। इन गीतोमे जन-साधारणकी भावनाएँ अभिव्यजित हुई है। सर्वसाधारणके सुख-दुःख, हर्प-विषाद और हास-विलास इनके वर्ण्य विषय थे। भावनाओकी सघनताकी अभिव्यञ्जना होनेके कारण इन गीतोके लिए छन्दके बन्धनोंकी आवश्यकता नहीं थी। ८-९वी शतीमे भक्ति, प्रेम, वीरता, करुणा, हास्य आदिकी अभिव्यक्ति के लिए दोहा, चौपाई, कडावक, पत्ता, छप्पय, रोला आदि मात्रा-वृत्तोंका भी देशी भाषामे प्रयोग होने लगा, फलस्वरूप इस भाषामे प्रबन्ध काव्योका आविर्भाव हुआ।
जैन-हिन्दी-साहित्यमे प्रबन्ध काव्यकी धारा आठवीं शतीसे ही प्रवाहित हुई और अबतक प्रवाहित हो रही है। इसका कारण यह है कि हिन्दी-जैन-कवियोंने प्राचीन कथाओंको लेकर ही अपने काव्यभवनका ..निर्माण किया है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती और नारायण
आदि महान् व्यक्तियोके सरस और हृदयग्राही जीवकाव्य
- नाकन-द्वारा दिव्य और चिरन्तन सौन्दर्यको प्रकाशित करना उन्होने सरल तथा मानवताके कल्याणके लिए उपादेय समझा। हिन्दी-जैन-प्रबन्ध-साहित्यकी उषाने मध्यकालमे जनसाधारणके सर्वाङ्गीण जीवन-क्षितिजको आनन्द-विभोर बना दिया, जिससे जीवनका कोना-कोना आलोकित हो उठा।
प्रबन्ध-काव्यमे इतिवृत्त, वस्तुव्यापारवर्णन, भावव्यञ्जना और सवाद ये चार अवयव होते है | कथामे पूर्वांपर क्रमबद्धताका रहना तो अनिवार्य