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________________ १८८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन यौं कहिये जु कहा लहिये, सुघहै कहिये करना धरिये जी। पावत मोख मिटावत दोप, सु यौं भवसागरकौं तरिये जी॥ ससारमे सुख और शान्ति समताके द्वारा ही स्थापित हो सकती है। जबतक तृष्णा और लालसा लगी रहती है, तबतक शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती । शाश्वतिक शान्ति सन्तोपके बिना नहीं मिल सकती है। जबतक हमारी प्रवृत्तियाँ बहिर्मुखी रहती है, तबतक आध्यात्मिक प्रभातका उदय नहीं हो सकता । इस आध्यात्मिक समरसताके विवेचनमे कवि प्रत्यक्ष जीवनमें निराश दृष्टिगोचर नहीं होता है, किन्तु आगाकी नवीन राशियों उसके मानस क्षितिजपर उदय हो रही है। कवि चरम सत्यमें विश्वास करता हुआ कह उठता है काहै कौं सोच करै मन मूरख, सोच करै कछु हाथ न ऐहै। पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निह. अपनो रस दैहै । ताहि निवारनको बलवंत, तिहूँ नगमाहिं न कोउ लसैहै। तात हि सोच तनी समवा गहि, ज्यौ सुख होइ जिनंद कहैहै । समदृष्टि अपने आत्मरूपका अनुभव करता है, उसे अपने अन्तस्की यह छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। उसकी यह प्रेयसी अत्यन्त ज्योतिर्मय है, इसके भ्रूसकेतमात्रसे पकज खिलते है, तृण-तरुपात सिहर उठते है, हरित दूर्वादल लहराने लगते हैं और नवीन उमगे, नयी भावनाएँ उत्पन्न हो आनन्द-विभोर कर देती हैं | कवि इस अनुपम सुन्दरीकी कल्पनासे ही सिहर जाता है और कह उठता है केवलग्यानमई परमातम, सिद्धसरूप लसै सिव ठाहीं। व्यापकरूप अखंड प्रदेश, लसै जगमैं जगसौ वह नाहीं । चेतन अंक लिय चिनमूरति, ध्यान धरी विसको निजमाहीं। राग विरोध निरोध सदा, निम होइ वही तजिकै विधि छाहीं॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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