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छठवाँ अध्याय
आत्मकथा-काव्य आत्मकथा लिखना अन्य काव्योकी अपेक्षा कठिन है। लेखक निर्भीक होकर सामान्य जगत्के घरातलसे ऊपर उठकर ही आत्मकथा काव्य लिख सकता है । सत्यका प्रयोग करनेमें जो जितना सक्षम है, वह उतना ही श्रेष्ठ आत्मकथा-काव्य लिखनेकी क्षमता रखता है। जैनकवि बनारसीदासका सर्वप्रथम आत्मकथा-काव्य हिन्दी साहित्यमें उपलब्ध है। आजसे लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कविने पद्यात्मक यह आत्मचरित लिखा है। इसमें अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक बातोके साथ मुसलमानी राज्यकी अन्धाधुन्धीका जीता-जागता चित्र भी खीचा है। कविने सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकताका ऐसा अकन किया है जिससे यह आत्मकथा आधुनिक आत्मकथाओसे किसी भी बातमे कम नहीं है । कविने अपने दोष और त्रुटियोंको भी सत्य और ईमानदारीके साथ ज्योका-त्यो रख दिया है। अपने चारित्रिक दोषोपर पर्दा डाल्नेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि एक वैज्ञानिकके समान तटस्थ होकर यथार्थताका विश्लेपण किया गया है। ___ यह आत्मकथा-काव्य 'मध्यदेशकी बोली में लिखा गया है। भाषामें किसी भी प्रकारका आडम्बर नहीं है। जो भाषा सुगमतापूर्वक सर्वसाधारणकी समझमें आ सके, उसीमे यह आत्मचरित लिखा गया है। आत्मकथाके आदिमे स्वय कविने लिखा है
जैनधर्म श्रीमाल सुर्वस । बनारसी नाम नरहंस ॥ तिन मनमाहि विचारी वात । कही आपनी कथा विख्यात ।।