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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
कोस, परन, कालिंगडी, गजल, मल्हार, देवता, विलावन्द, वा, fieड़ा, हु, आदि अनेक राग-रागिनियोन न-पद- रचयिताओंने पदकी रचना की है। संगीतका माधुर्य नरके पर्व के मम्गन ही जैनपदोम मी विद्यमान है ।
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अन्वनंगनने चित्रगकी दृष्टिले नरकं अनेक पद जैन-पदक सम्मान मात्रपूर्ण हैं । बाम्मुल्य शृंगार और शान्त इन तीनों रसोंका परिपाक सूरके पदोंमें विद्यमान है । वन्मुल्य रमके चित्रण चान्मनीविडान, श्रहार- वियक पदोंमें प्रेमकी वृतिका व्यापक दिग्दर्शन एवं भक्ति-वियक पदोंमें आत्माभिव्यक्ति पूर्ण रूपसे हुई है । विनयके पदों के आरम्भ में आराध्य श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कवि कहता है
चरनकमल बन्द हरिनाह ।
बाकी कृपा पंगु गिरि लंबे, अम्बेको सब कुछ दरसाइ ॥ बहिरो सुन, गूंग पुनि बोले, रंक चलें सिर छत्र धराड़ | 'सूरदास' स्वामी नामय, वारम्वार बन्द तिहि पाई ॥
जैनपदाएँ इस आशय अनेक पद हैं। बुधदनका एक पद उद्धृत किया जाता है । कितनी समानता है—
यहाँ तुलनाके लिए कवि पटक देखेंगे कि दोनोंमें
तुम चरननकी डारन, आय सुख पायौ ।
अत्र त्रिर मत्र न मैं डोस्यो, जन्म जन्म हुन्न पायौ ॥ नुमः ॥
ऐसो सुन्न सुरपति के नाहीं, मौ मुख ज्ञान न गाय |
अत्र मत्र सम्पति मां दर आई, मन वत्र तन नैं उठ कर गर्मी, बारम्बार चीन 'घनन
आज परम पढ़ लायौ ॥ तुल० ॥ कबहुँ न ज्या विपरायी ।
की मनको नात्री ॥ तुनः ||
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सुहाने अपने न्नका परिष्कार करते हुए अपनी दूषित प्रवृत्तियांत्री
निन्दा की है। aण अपने आराध्य के सम् पनी आत्मालोचना करते