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________________ 198 हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन कोस, परन, कालिंगडी, गजल, मल्हार, देवता, विलावन्द, वा, fieड़ा, हु, आदि अनेक राग-रागिनियोन न-पद- रचयिताओंने पदकी रचना की है। संगीतका माधुर्य नरके पर्व के मम्गन ही जैनपदोम मी विद्यमान है । S अन्वनंगनने चित्रगकी दृष्टिले नरकं अनेक पद जैन-पदक सम्मान मात्रपूर्ण हैं । बाम्मुल्य शृंगार और शान्त इन तीनों रसोंका परिपाक सूरके पदोंमें विद्यमान है । वन्मुल्य रमके चित्रण चान्मनीविडान, श्रहार- वियक पदोंमें प्रेमकी वृतिका व्यापक दिग्दर्शन एवं भक्ति-वियक पदोंमें आत्माभिव्यक्ति पूर्ण रूपसे हुई है । विनयके पदों के आरम्भ में आराध्य श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कवि कहता है चरनकमल बन्द हरिनाह । बाकी कृपा पंगु गिरि लंबे, अम्बेको सब कुछ दरसाइ ॥ बहिरो सुन, गूंग पुनि बोले, रंक चलें सिर छत्र धराड़ | 'सूरदास' स्वामी नामय, वारम्वार बन्द तिहि पाई ॥ जैनपदाएँ इस आशय अनेक पद हैं। बुधदनका एक पद उद्धृत किया जाता है । कितनी समानता है— यहाँ तुलनाके लिए कवि पटक देखेंगे कि दोनोंमें तुम चरननकी डारन, आय सुख पायौ । अत्र त्रिर मत्र न मैं डोस्यो, जन्म जन्म हुन्न पायौ ॥ नुमः ॥ ऐसो सुन्न सुरपति के नाहीं, मौ मुख ज्ञान न गाय | अत्र मत्र सम्पति मां दर आई, मन वत्र तन नैं उठ कर गर्मी, बारम्बार चीन 'घनन आज परम पढ़ लायौ ॥ तुल० ॥ कबहुँ न ज्या विपरायी । की मनको नात्री ॥ तुनः || 1 सुहाने अपने न्नका परिष्कार करते हुए अपनी दूषित प्रवृत्तियांत्री निन्दा की है। aण अपने आराध्य के सम् पनी आत्मालोचना करते
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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