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________________ हिन्दी-जन-साहित्य परिशीलन उपमा, उबक्षा, यमक, रूपक, अनुप्रास और उदाहरण अलंकारोंकी भरमार है। भाषा और उनिको अलंकृत बनानेकी कविने पूरी चेष्टा की है । शृंगार, करुण, वीर, बीभत्स और शान्तरसका परिपाक यथास्थान अच्छा हुआ है । अनेक स्थानों में काव्य-चमत्कार भी विद्यमान है। इस चरितके रचयिता परिमल कवि है। इसमें श्रीपाल और मैनासुन्दरीकी प्रसिद्ध कथा लिखी गयी है। देश और पुरीका वर्णन विशद श्रीपालचरित स्प र स्पमे किया गया है । जीवन-कथाको सीधे और सरल ढगसे व्यक्त कर कविने घटनाओंकी क्रमबद्धताका पूरा निर्वाह किया है। इसमें धर्म और अधर्मका संघर्ष, पाप और पुण्यका द्वन्दू, हिंसा और अहिंसाके घात-प्रतिषात मार्मिक ढगसे व्यक्त किये गये है। अमिमान व्यक्तिको कितना नीचे गिरा देता है, अविवेकसे बुद्धिका सर्वाभाव किस प्रकार हो जाता है, यह मैनासुन्दरीके पिताकी हटग्राहितासे स्पष्ट है। ___ोहे और चौपाई छन्दमें ही यह चरित-ग्रन्थ लिखा गया है। प्रासयोजनामे कविको अच्छी सफलता मिली है। यतिभंग या छन्दोमंग कहीं भी नहीं मिलेगा। गेय छन्दका प्रयोग करनेसे भावनाओको गतिशील बनानेका आयास प्रशस्य है। भापाकी दृष्टिसे इसमें ब्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी और मारवाड़ीका पूरा मिश्रण है। कहींपर दीनी, बीनी; कहीं दियो, लियो, अजहूँ और कहीं कहाणे, सुवासणि, सीसाण और मज़े आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है । तत्सम शब्द बहुन कम आये है। वाहन, कोढ़ी, परवीण आदि तद्भव शब्दोका प्रयोग बहुलतासे हुआ है। वर्णनमें कवि यथास्थान उपदेश देनेसे नहीं चूका है। धवल सेठको धिक्कारते हुए उपदेशौकी अढी लगा दी है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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