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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
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प्राप्त होती है । कवि कहता है कि कमल रातदिन पकमें रहता है तथा पकज कहा जाता है, फिर भी कीचड़से वह सदा अलग रहता है । मन्त्रवादी सर्पको अपना गात पकड़ाता है, परन्तु मन्त्रशक्तिसे विषके रहते हुए भी सर्पका डक निर्वित्र रहता है । पानीमें पड़ा रहनेसे नहीं लगती है ; उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति ससारकी करते हुए भी अपनेको भिन्न एव निर्मल समझता है ।
जैसे स्वर्णमे काई
समस्त क्रियाओको
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जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, पंकज कहावे पैन वाके ढिग पंक्र है । जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहावै गात, iraat aafa art बिना विप ढंक है । जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे अंग, पानीमें कनक जैसे काईसे अटंक है । तैसे ज्ञानवान नानाभाँति करतूत ठाने, किरिया तैं भिन्न माने मोते निष्कलंक है ॥
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ज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही आत्मराज्यकी उत्पत्ति होती है, विकार और वासनाऍ ज्ञानके उद्बुद्ध होते ही क्षीण हो जाती हैं। यह ज्ञान बाह्य' पदार्थम नही रहता है, किन्तु आत्माका गुण है । आत्मबोध पाते ही ज्ञानकी अवस्था जागृत हो जाती है । आत्मज्ञानी भेद-ज्ञानकी ओरसे 1 आत्मा और कर्म इन दोनोकी धाराओंको अलग-अलग करता है । आत्माका अनुभव कर श्रेष्ठ आत्मधर्मको ग्रहण करता है और कमोंके भ्रमको नष्ट कर देता है। इस प्रकार रत्नत्रय मागंकी ओर अग्रसर होता है, जिससे पूर्ण ज्ञानका प्रकाश सहजमे ही उत्पन्न हो जाता है । ज्ञानी 1 विश्वनाथ बन जाता है । पूर्ण समाधिमे मग्न होकर शुद्धात्माको प्राप्त करता है, जिससे शीघ्र ही ससारके आवागमनसे रहित होकर कृतकृत्य हो विश्वनाथके पदपर आसीन हो जाता है । कवि कहता है
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