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________________ क्यो दौड़ता रहनसे तूने अनार नहीं किया, ९२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सत्यको प्राप्त नहीं कर सकता है। कवि कहता है-"मन तेरी बुरी आदत क्यों पड गई है ? तू अनादिसे इन्द्रियोके विषयोंकी ओर क्यो दौड़ता चला आ रहा है, इन्हीके अधीन रहनेसे तूने अनादिकालसे अपनी आत्माका निरीक्षण नहीं किया, अपने स्वरूपको नहीं पहचाना हे मन, तेरी को कुटेव यह, करन-विषय मे धावै है । टेक ॥ इन्हींके वश द अनादि ते, निन स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छीन समाकुल, दुरगति-विपति चखावै है ॥ हे मन० ॥१॥ फरस-विषयके कारण पारन, गरत परत दुख पावै है। रसना इन्द्रीवश अप जल में, कंटक कंठ छिदा है। हेमन० ॥२॥ गंध-लोल पंकन मुद्रितमें धुलि निज प्रान खिपाचै है। नयन-विषय-वश दीपशिखामें अंग पतंग जरावै है। हे मन० ॥३॥ करन-विषय-वश हिरन अरन में, खलकर प्रान लुना है। 'दौलत' तब इनको, जिनको भज, यह गुरु सीख सुना है। हेमन० ॥॥ इनके पट विषयकी दृष्टिसे रक्षाकी भावना, आत्मनिक्षेप भत्र्सना, भयदर्शन, आश्वासन, चेतावनी, प्रभुस्मरणके प्रति आग्रह, आत्मदर्शन होनेपर अस्फुट वचन, सहज समाधिकी आकाक्षा, स्वपदकी आक्रामा, संसार-विश्लेपण, परसत्त्ववोधक एवं आत्मानन्द श्रेणीमे विभक्त किये जा सकते है। उक्त वर्गीकरणमसे कुछ पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं । आत्मनिक्षेप-सम्बन्धी पढोमें भगवान्के सम्मुख आत्मसमर्पणकी भावना प्रदर्शित की गई है। इन पदोंमे अपने प्रति और अपने आराध्यके प्रति एक अखण्ड अविचलित विश्वास है। इसी कारण इस श्रेणीके पढाम सीधे-सादे भाव पाठकके हृदयपर सीधे चोट पहुंचाते हैं
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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