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माध्यात्मिक रूपक काव्य
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आश्रमो, मठों, देवाल्यो एव मुनियोके आवासोमें श्रद्धाको ढूँढ़नेको कहती है । शान्ति सर्वत्र श्रद्धाको ढूँढती है, पर उसे सर्वत्र पाखण्ड ही दिखलायी पड़ता है । धार्मिक श्रेष्ठताका भाव केवल शब्दोमे ही है, क्रियामक जीवनमे प्रत्येक धर्मावलम्बी धर्मके उदात्तस्वरूपको भूलकर इन्द्रियसुख-लिप्साम ही धर्म समझता है। यह नाटक शानसूर्योदय नाटककी छाया सा प्रतीत होता है।
कवि प्रसादका कामना नाटक सास्कृतिक रूपक है । कामना मानवमनालोककी रानी है, वह विलासके प्रति आकृष्ट होती है, पर उसके साथ उसका विवाह नहीं होता और अन्तमे सन्तोषके साथ उसका परिणय हो जाता है । विलास कामनाको छोड़ लालसाके साथ परिणय करता हैदोनों एक दूसरेके आकर्षणपर मुग्ध हैं। विलास अपना प्रभुत्व स्थापित करनेके लिए स्वर्ण और मदिराका प्रचार करता है, पश्चात् शनैः-शनैः सभ्य शासनकी दुहाई देकर सभी लोगोपर नियन्त्रण करना आरम्भ कर देता है । जव मानवता त्राहि-त्राहि करने लगती है, तो कामनाको अपनी भूल अवगत हो जाती है और वह सन्तोपको वरण करती है। सब मिलकर विलास और लालसाको उनकी समस्त स्वर्णराशिके साथ समुद्रमे विसर्जित कर देते है । वह रूपक सागोपाड़ है।
जैन कान्यके रूपक भी साङ्गोपाङ्ग हैं। यद्यपि कथामे मानवीय रोचकवा कुछ क्षीण है, सैद्धान्तिक आधार कुछ अधिक स्पष्ट होनेके कारण मानव मनको रमानेमें कुछ असमर्थ से है; पर मानव मनको थकाते या वोझिल नहीं बनाते हैं । कवित्वका उल्लास प्रत्येक काव्यमे विद्यमान है। पात्रोका चरित्र-विलास, उनका मासल व्यक्तित्व और आकर्षक वार्तालाप इन, काव्योम प्रायः नहीं है, फिर भी विचारोंका सुन्दर सकलन हुआ है। सूक्ष्म शरीरधारी पात्रोंका अतीन्द्रिय कर्मलोक स्वभावतः मनोरक्षक होता है । इन काव्योमें सिद्धान्त और कविता जीवनकी आधार भूमिपर सहन समन्वित है। सुनहली कल्पनाएँ वायवी वातावरणमें कविताकी रग
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