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प्रकीर्णक काव्य
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नीच की ओर ढरै सरिता जिमि, घूम वढावत नींदकी नाई । चंचला है प्रगटै चपला जिमि, अन्ध करै जिम धूमकी झाई ॥ तेज करै तिसना दव ज्यो मद, ज्यो मद पोषित मूढके ताई । ये करतूत करै कमला जग, डोलत ज्यां कुलटा बिन साई ॥
समस्त दोषोको उत्पन्न करनेवाला अहकार विकार है । इस 'अ' प्रवृत्तिके आधीन होकर मनुष्य दूसरोंकी अवहेलना करता है । अपनेको बड़ा और अन्यको तुच्छ या लघु समझता है । अतएव समस्त दोष इस एक ही दुष्प्रवृत्तिमें निवास करते हैं । कवि कहता है कि इस अभिमान से ही विपत्तिकी सरिता कल-कल ध्वनि करती हुईं चारो ओर प्रवाहित हो रही है । इस नदीकी धारा इतनी प्रखर है, जिससे यह एक भी गुणग्रामको अपने पूरमे बहाये बिना नहीं छोड़ती । अतएव यह 'अहभाव' एक विशाल पर्वतके तुल्य है, कुबुद्धि और माया इसकी गुफाएँ है, हिंसक बुद्धि धूमरेखाके समान और क्रोध दावानलके समान है । कवि कहता है
जातें निकस चिपति सरिता सब, जगमें फैल रही चहुँ ओर । जाके ढिंग गुणग्राम नाम नहि; माया कुमतिगुफा अति घोर ॥ जहॅ वधबुद्धि धूमरेखा सम; उदित कोप दावानल जोर । सो अभिमान पहार पढंतर, तजत ताहि सर्वज्ञ किशोर ॥ इस काव्यमे जीवनोपयोगी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ग्रह एव सयमकी विवेचनाके साथ क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, घृणा आदि विकारोंकी आलोचना की गयी है। दोनों ही दृष्टियोसे रचना उपादेय है ।
मानवकै शान्त गम्भीर हृदयको अज्ञान सर्वदा रहा है । ज्ञानका जो अश शिवत्वका उद्घाटन करता है,
ज्ञानबावनी
ब्रह्मचर्य, अपरिअभिमान, काम, भाव और भाषा
वेदनामय बनाता उसके तिरोहित
या आच्छादित हो जानेसे मानवका मानवत्व ही लुप्त
हो जाता है । कविने इस रचनामें जानकी महिमा
का मनोहर वर्णन किया है तथा कवि मानव- हृदय के अन्तरतमको टटो