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________________ • प्रकीर्णक काव्य २०३ युवक और युवतियाँ है, इन्हीके ऊपर राष्ट्रका समस्त भार है, अतः आपका महत्त्वपूर्ण त्याग वैयक्तिक साधना न बनकर राष्ट्रहित-साधक होगा; फिर भी मै आपके कोमल शरीर और ललित कामनाओका अनुभव कर कहती हूँ कि यह व्रत आपके लिए उचित नहीं है । श्रावण मासमें व्रत लेनेसे धनघोर बादशैंका गर्जन, विद्युत्की चकाचौध, कोयलकी कुहुक, तिमिरयुक्ता यामिनी, पूर्वी हवाके मधुर और शीतल ओंके आपको वासनासक्त किये विना न रहेंगे । इस महीनेमे दीक्षा लेना खतरेसे खाली नहीं है, अतएव तप साधन करना ठीक नहीं है।" राजुलकी उक्त वातोका उत्तर नेमिनाथने बड़े ही ओजस्वी वचनोंमे दिया है । वह कहते हैं कि “जब तक व्यक्ति अपना गोधन नहीं करता, राष्ट्रका हित नहीं कर सकता है। आत्मगोधनके लिए समयविशेपकी आवश्यकता होती है । भय और त्रास उन्ही व्यक्तियोको विचलित कर सकते हैं, जिनके मनमे किसी भी प्रकारका प्रलोभन शेष रहता है । प्रकृतिके मनोहर रूपमे जहाँ रमणीय भावनाओको जाग्रत करनेकी क्षमता है। वहाँ उसमे वीरता, धीरता और कर्तव्यपरायणताकी भी भावना उत्पन्न करनेकी योग्यता विद्यमान है । अतः श्रावण मासकी झडी वासनाके स्थानपर विरक्ति ही उत्पन्न कर सकेगी।" नेमिनाथके इस उत्तरको सुनकर राजुल भाद्रपद मासकी कठिनाइयोका वर्णन करती है। वह मोहवश उनसे प्रार्थना करती हुई कहती है कि "हे प्राणनाथ | आप जैसे सुकुमार व्यक्ति भाद्रपद मासकी अनवरत होनेवाली वर्षा ऋतुमे मुक्त प्रकृतिमे, जहाँ न भव्य प्रासाद होगा और न वनवेश्म होगा, आप किस प्रकार रह सकेगे ? झझावात नन्हीं नन्ही पानीकी बूंदोसे युक्त होकर गरीरमें अपूर्व वेदना उत्पन्न करेगा । यदि आप योगधारण करना चाहते हैं तो घर ही चलकर योगधारण कीजिये। सेवकको वन जाना आवश्यक नहीं, वह घरमे रहकर भी सेवा-कार्य कर सकता है। प्राणनाथ! मैं यह मानती हूँ कि इस समय देशमे हिंसाका बोलबाला है,
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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