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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
त्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोपदर्शितप्रति विशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । काकार्त्तस्वरलाभवदभेदरत्नत्रयस्वरूपसमाधिकाले सप्रयोजनो भवति । निःप्रयोजनो न भवतीव्यर्थः । ववहारदेसिदो व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेण देशितः कथित इति व्यवहा विवक्षासे सत् असद्रूप, एक अनेकरूप, नित्य अनित्यरूप, भेद अभेदरूप, शुद्ध अशुद्ध रूप जिस तरह विद्यमान वस्तु है उसी तरह कहकर विरोध मिटा देता है झूठी कल्पना नहीं करता । इसलिये द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों नयोंमें प्रयोजनके वश शुद्ध द्रव्यार्थिकको मुख्यकर निश्चय कहता है और अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकको गौणकर व्यवहार कहता है । इस प्रकार जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्मक यथार्थ पाते हैं, अन्य सर्वथा एकांती सांख्यादिक नहीं पाते । क्योंकि वस्तु सर्वथा एकांतपक्षका विषय नहीं है तौभी एक धर्ममात्रको ही ग्रहणकर वस्तुकी असत्य कल्पना करते हैं । सो असत्यार्थ ही है बाधासहित मिध्यादृष्टि है ऐसा जानना || इसतरह बारह गाथाओं में पीठबंध ( भूमिका ) है । आगे आचार्य शुद्धनयको प्रधानकर निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं क्योंकि अशुद्धनय ( व्यवहारनय ) की प्रधानता में जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है । उसी जगह उन जीवादिकों को शुद्धनयकर जाननेसे सम्यक्त्व होता है ऐसा कहते हैं । वहां टीकाकार उसकी सूचनिकारूप तीन श्लोक कहते हैं । उनमें से पहले श्लोक में यह कहते हैं कि व्यवहारनयको कथंचित् प्रयोजनवान् कहा तो भी यह कुछ वस्तुभूत नहीं है | "व्यवहरण" इत्यादि । अर्थ–जो व्यवहार नय है वह यद्यपि इस पहली पदवी में ( जबतक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हुई हो तबतक ) जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको हस्तावलंब तुल्य कहा है, सो बड़ा खेद है । तौभी जो पुरुष चैतन्यचमत्कार मात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित परम अर्थ ( शुद्धनयका विषयभूत ) को अंतरंगमें अवलोकन करते हैं उसका श्रद्धान करते हैं तथा उस स्वरूप लीन हुए चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उनके यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान् नहीं है ॥ भावार्थ- - शुद्ध स्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण हुए वाद अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनकारी नहीं है । अब आगे श्लोक में निश्चय सम्यक्त्तत्रका स्वरूप कहते हैं—“एकत्वे " इत्यादि । अर्थ — जो इस आत्माको अन्य द्रव्यों से जुदा देखना श्रद्धान करना वोही नियमसे सम्यग्दर्शन है । कैसा है आत्मा ? अपने गुणपर्यायोंमें व्यापनेवाला है । फिर कैसा है ? शुद्धनयसे एकपने में निश्चित किया गया 1 फिर कैसा है ? पूर्ण ज्ञानघन है और जितना यह सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि इस नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड यह आत्मा ही हमें प्राप्त होवै ॥ भावार्थ – सब स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणप
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