________________
समयसारः ।
२७
रिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । अन्ये तु प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्त्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवंति तेषां पर्यंत पाकोत्तीर्णजात्यकार्त्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यसुद्धादेसो शुद्धद्रव्यस्यादेशः कथनं यत्र स भवति शुद्धादेशः । णादव्वो ज्ञातव्यः भावयितव्यः । कैः । परमभावदसीहिं शुद्धात्मभावदर्शिभिः । कस्मादिति चेत् । यतः षोडशवर्णमतलवका ) नहीं । और जबतक शुद्धभावकी प्राप्ति न हुई तबतक जितना अशुद्ध नयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवाला है । जबतक यथार्थ ज्ञान श्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हुई हो तबतक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिनवचनोंका सुनना, धारण करना तथा जिनवचनके कहनेवाले श्रीजिनगुरुकी भक्ति जिनबिका दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमें प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है । और जिसके श्रद्धान ज्ञान तो हुआ तथा साक्षात्प्राप्ति न हुई तबतक पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यका आलंबनछो. नेरूप अणुव्रत महाव्रतका ग्रहण, समिति गुप्ति पंचपरमेष्ठीका ध्यानरूप प्रवर्तन, उसी तरह प्रवर्तनेवालों की संगति करना और विशेष जानने के लिये शास्त्रोंका अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्गमें आप प्रवर्तना तथा अन्यको प्रवर्ताना ऐसे व्यवहारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है । व्यवहार नयको कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है, यदि सब असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़े और शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति हुई नहीं इसलिये उलटा अशुभोपयोगमें ही आकर भ्रष्ट हुआ यथाकथंचित् स्वेछारूप प्रवर्ते तब नरकादिगति तथा परंपरा निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करता है । इसकारण साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध आत्मा उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहार भी प्रयोजनवान् है । ऐसा स्याद्वादमत में श्रीगुरुओं का उपदेश है । इसी अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकार कहते हैं – “उभय" इत्यादि । उसका अर्थ — निश्चय व्यवहाररूप जो दो नय उनके विषयके भेद से आपस में विरोध है । उस विरोधके दूर करनेवाला स्यात्पदकर चिह्नित जो जिन भगवानका वचन उसमें जो पुरुष रमते हैं - प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं वे पुरुष विना कारण अपने आप मिध्यात्व कर्मके उदयका वमनकर इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको शीघ्र ही अवलोकन करते हैं । कैसा है समयसार रूप शुद्ध आत्मा ? नवीन नहीं उत्पन्न हुआ है— पहले कर्म से आच्छादित था वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है । फिर कैसा है ? सर्वथा एकांतरूप कुनयकी पक्षकर खंडित नहीं होता — निर्बाध है ॥ भावार्थ - जिनवचन स्याद्वादरूप हैं, जहां दो नयोंके विषयका विरोध है अर्थात् जैसे जो सद्रूप है वह असद्रूप नहीं होता, एक है वह अनेक नहीं होता, नित्य है वह अनित्य नहीं होता, भेदरूप है वह अभेदरूप नहीं होता, शुद्ध है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयोंके विषयों में विरोध है, वहां जिन वचन कथंचित्