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समयसारः।
२५ भावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकभावं तमनुभवंति । तदत्र ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यंतः सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्यातः प्रत्यगात्मदशिभिर्व्यवहारनयो नानुसतव्यः ॥११॥ अथ च केषांचित्कदाचित्सोपि प्रयोजनवान् । यतः
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे हिदा भावे ॥१२॥
शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः ।
व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे ॥ १२ ॥ ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयपरमं भावमनुभवंति तेषां प्रथमद्वितीयापिबति । तथा स्वसंवेदनरूपभेदभावनाशून्यजनो मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामसहितमात्मानमनुभवति, सद्दृष्टिजनः पुनरभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पसमाधिबलेन कतकफलस्थानीयं निश्चयनय. माश्रित्य शुद्धात्मानमनुभवतीत्यर्थः ॥ ११॥ अथ पूर्वगाथायां भणितं भूतार्थनयाश्रितो जीवः सम्यग्दृष्टिर्भवति । अत्र तु न केवलं भूतार्थो निश्चयनयो निर्विकल्पसमाधिरतानां प्रयोजनवान् भवति । किंतु निर्विकल्पसमाधिरहितानां पुनः षोडशवर्णिकासुवर्णलाभाभावे अधस्तनवर्णिकासुरण यहां ऐसा समझना कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है प्रयोजनके वशसे नयको मुख्य गौण करके कहती है । भेदरूप व्यवहारकी पक्ष तो प्राणियोंको अनादिकालसे ही है और उसका उपदेश भी बहुधा सभी प्राणी आपसमें करते हैं । जिनवाणीमें व्यवहारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलंबन (सहायक ) जान बहुत किया है। परंतु उसका फल संसार ही है । और शुद्धनयकी पक्ष इस जीवको कभी आई नहीं तथा उसका उपदेश भी कहीं २ है इसलिये उपकारी श्रीगुरुने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर इसीका उपदेश प्रधानता ( मुख्यता ) से दिया है कि शुद्धनय भूतार्थ है सत्यार्थ है इसीको आश्रय करनेसे सम्यग्दृष्टि होसकता है, इसके जाने विना व्यवहारमें जबतक मग्न है तबतक आत्माका ज्ञान श्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं होसकता-ऐसा जानना ॥११॥ आगे कहते हैं कि यह व्यवहारनय भी किसी २ को किसी कालमें प्रयोजनवाली है सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है इसलिये इसका उपदेश है;-[परमभावदर्शिभिः ] जो शुद्धनयतक पहुंच श्रद्धावान हुए तथा पूर्णज्ञान चारित्रवान होगये उनको तो [शुद्वादेशः] शुद्धका उपदेश ( आज्ञा ) करनेवाली [शुद्धः ] शुद्धनय [ज्ञातव्यः] जानने योग्य है । यहां शुद्ध आत्माका प्रकरण है इसलिये शुद्ध नित्य एक ज्ञायकमात्र आत्मा जानना । [पुनः ] और [ये तु] जो जीव [अपरमे भावे] अपरमभाव अर्थात् श्रद्धाके तथा ज्ञान चारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुंचसके साधक अवस्थामें ही [स्थिताः] ठहरे हुए हैं वे [व्यवहारदेशिताः] व्यवहारद्वारा उपदेश करने योग्य
४ समय.