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तुम्हारा ही वह पौरुष धन्य !
श्री
हुकमचन्द्र बुखारिया, 'तन्यय'
सम्प्रति युग हे एक श्रेष्ठतम पुरुष वृद्ध !
मुट्ठी भर दुर्बल हाड़ोंके हे स्तूप !! जियो तुम अविचल जब तक
-- भलै सुख्यात या कि बदनाम,
दूर क्षितिज पर तप्त दिवाकर,
स्वार्थमय या कि परम निष्काम,
शीतल शशि, नक्षत्र अनेकानेक— प्रकाशित हैं जगमग जगमग !
माना
विकृत प्रति या कि पूर्ण अभिराम !
सहन गम्भीर वही इतिहास
किन्तु
शनैः शनै भयभीत
अत्र तक इतिहास
हुआ जाता यह सोच-विचार
बहन करता आया है भारअनेकों का-लघु या कि महान -
कि निकटागत में तुम जब प्राप्त
उन्नीस
उसे होओ गे ही अनिवार्य, संभालेगा तब कैसे भार
तुम्हारा वह १ हे गहन महान् !
अनेकों शिशु भोले सुकुमार, शिक्षित बने भूमिके भार,