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- बीस असमाधिस्थान . kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkx कारणों का जिक्र किया है, जो जीवन की दैनंदिन क्रिया से संबद्ध हैं। चलना, बोलना, खानापीना, गुरुपदस्थानीय, ज्येष्ठ, वरिष्ठ पुरुषों के साथ व्यवहार आदि में अजागरूकता. न आए, समिति और गुप्तिपूर्वक उसकी गतिविधि संचालित हो, इसलिए एतद्विषयक उन सभी निषिद्ध या दोषयुक्त कार्यों का इस सूत्र में प्रतिपादन हुआ है, जो आत्मसमाधि को मिटा देते हैं।
यहाँ प्रयुक्त उपघात,-अवधारणा शब्द विशेष रूप से ज्ञेय हैं। घात का अर्थ हनन या नाश होता है। 'घात' से पूर्व प्रयुक्त 'उप' उपसर्ग उसके अर्थ को हल्का बना देता है। 'उप' सामीप्य द्योतक है। यहाँ घात तो नहीं होता किन्तु उस जैसी पीड़ा, वेदना या परेशानी होती है, उसे उपघात कहा जाता है। .. 'अवधारणा' शब्द 'अव' उपसर्ग और 'धृ' धातु से बना है। 'अव' समन्तात या सर्वथा का द्योतक है। जहाँ सर्वथामूलक - इत्थंभूत (ऐसा ही है) भाषा का प्रयोग हो, उसे निश्चय भाषा कहा जाता है। श्रमण के लिए वैसा करना वर्जित है। क्योंकि सर्वज्ञत्व प्राप्ति के बिना वैसी भाषा प्रयोक्तव्य नहीं मानी जाती। ___समीप ज्ञान का धनी सार्वदिक या सर्वदेशीय शब्दावली प्रयुक्त करने का अधिकारी नहीं . होता। इसलिए श्रमण के लिए संभावनामूलक भाषा का प्रयोग करना विहित है। .
प्रमार्जन, दुष्प्रमार्जन आदि का जो विशेष रूप से प्रयोग हुआ है, वह सूक्ष्म जीवों की दृष्टि से है। श्रमण द्वारा धारण किए जाने वाले उपकरणों में रजोहरण का यही प्रयोजन है। जहाँ प्रकाश का अभाव हो, वहाँ व्यक्ति कितनी ही सावधानी से चले, सूक्ष्म जीवों का घातोपघात आशंकित रहता है, इसलिए प्रमार्जन भी बहुत अच्छी तरह हो, परंपरानिर्वाह मात्र न हो। ___गच्छ के साधु साध्वियों में अलगाव की भावना को उत्पन्न करना 'भेद' कहलाता है। इसमें काषायिक वृत्तियाँ होने के कारण इसमें चारित्र अस्वस्थ्य (असमाधिस्थ) हो जाता है। इसलिए भेद करने की प्रवृत्ति को असमाधिस्थान में बताया गया है। गच्छ में रहते हुए भी गच्छ के अमुक साधुओं को अपने पक्ष में बनाकर गच्छ में भेद की स्थिति को उत्पन्न करने में तीव्र काषायिक परिणाम रहते हैं इन विचारों से संयम के पर्याय बहुत नष्ट होते हैं। उसकी शुद्धि के लिए आगमकारों ने "पारांचिक" प्रायश्चित्त बताया है।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की प्रथम दशा समाप्त॥
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