Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अन्यमतावलम्बियोंके माने हुए प्रमाण, प्रमेय, आदि पदार्थ ही जब युक्तियों से व्यवस्थित नहीं हो सकते हैं सब प्रमाण आदिकी व्यपरथाका असम्भव हो जानेसे उनके यहाँ प्रयोजन वाक्य भी किसी प्रभाणस्वरूप कैसे सिद्ध हो सकता है ? और ऐसी अव्यवस्था प्रयोजनवाक्य लिखना तो भला दूर रहा किन्तु ऐसे लोगोंका तो शास्त्र बनाना ही असंभव है यह विचार लेना चाहिये, फिर प्रयोजनवाक्यके कथनकी तो बात ही दूर है।
श्रद्धाकुतूहलोत्पादनार्थ तदित्येके तदप्यनेनैव निरस्तं तस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वपक्षयोस्तदुत्पादकत्वायोगात् ।
शिष्योंको ग्रंथ सुनने में श्रद्धा ( विश्वास ) पैदा हो और कौतुक उत्पन्न हो इस प्रकार भोताओंके चित्तको आकर्षित करनेके लिये ग्रन्थकी आदिमें प्रयोजनवाक्य लिख दिया जाता है, ऐसा किसी एक सम्प्रदायको माननेवाले पण्डित कहते हैं, आचार्य महाराज आदेश करते हैं कि
उनका कथन भी इस पूर्वोक्त विचारसे ही खण्डित हो जाता है क्योंकि प्रयोजनवाश्यक प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व इन दोनोमसे किसी भी पक्षको ग्रहण करनेपर प्रयोजनवाक्यको उन उन श्रद्धा और कुतूहलका उत्पादकपना नहीं बन सकता है अर्थात् प्रमाण मानने में अनवस्था, प्रामाण्यका निश्चय न होना, व्याप्ति न बनना, आदि दोष आवेंगे और अप्रमाण माननेसे तो प्रमाणपनेका विचार ही संसारसे नष्ट हुआ जाता है ।
अर्थसंशयोत्पादनार्थ तदित्यप्यसार क्वचिदर्थसंशयात्प्रवृत्ती प्रमाणव्यवस्थापनानर्थक्यात, प्रमाणपूर्वकोऽर्थसंशयः प्रवर्तक इति प्रमाणव्यवस्थापनस्य साफल्ये कथमप्रमाणकास्प्रयोजनवाक्यादुपजातोऽर्थसंशयः प्रवृत्यंगं । विरुद्धं च संशयफलस्य प्रमाणत्वं विपर्यासफलवत् खार्थव्यवसायफलस्यैव ज्ञानस्य प्रमाणत्वप्रसिद्धः।
.फोई संशयालु कह रहा है कि ग्रंथकी आदिमें प्रयोजनका लिखना अन्यके वाच्य अर्थ में संशय पैदा करने के लिये है क्योकि अर्थ में संशय होनेपर ही जनता भविष्यमें उस ग्रंथको सुनेगी । इस शंकाकारका यह हृद्य प्रतीत होता है कि " एकांतनिश्चयावर संशयः " अनिष्ट बासके निर्णयकी अपेक्षा उसका संशय बना रहना कहीं अच्छा है, इस नीतिके अनुसार ग्रंथके सुननेमें जिनको कुछ भी फल नहीं दीखता, उनको अथकी आदिमें प्रयोजन बतानेसे फलप्राप्तिका कमसे कम संशय तो अवश्य हो जावेगा, जिससे कि वे फलकी संभावनासे सो ग्रंथ सुनने में प्रवृत्ति करेंगे । अर्थशब्दका अर्थ प्रयोजन भी होता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहनेमें भी कुछ सार नहीं है क्योंकि, अर्भके संशयसे ही कहीं प्रवृत्ति होने लगे तो प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था मानना व्यर्थ पडेगा । यदि तुम ऐसा कहोगे कि प्रत्येक संशयको हम प्रवर्चक नहीं मानेंगे किन्तु प्रमालज्ञानसे उत्पन्न हुआ