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सर्वदर्शनसंग्रहे
यतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है । चार्वाक = चारु (सुन्दर ), वाक् ( वचन ) मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति चार्वाक मत की ओर ही है । बाद में उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते हैं। दूसरे जीव भी ( पशु-पक्षी आदि ) चार्वाक ( = स्वाभाविक-धर्म एवं दर्शन ) के पृ ठपोषक हैं। ग्रीक दर्शन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इसी सम्प्रदाय के समान अपने दर्शनों की अभिव्यक्ति करते हैं । ' लोकायत' शब्द पाणिनि के उक्थगण ( क्रनूक्थादिसूत्रान्ताट्ठक् ४/२/६० ) में मिलता है जिसमें 'लोकायतिक' शब्द बनाने का विधान है । षड्दर्शन- समुच्चय के टीकाकार गुणरत्न का कहना है कि जो पुण्य-पापादि परोक्षवस्तुओं का चर्वण ( नाश ) कर दे वही चार्वाक है । काशिका - वृत्ति ( १।३।३६ ) में चार्वी नामक लोकायतिक आचार्य का भी उल्लेख है 17
( २. तत्त्व-मीमांसा )
तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि । तेभ्य एव देहाकारपरिणतेभ्यः किण्वादिभ्यः मदशक्तिवत् चैतन्यमुपजायते । विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति । तदाहु: - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, स न प्रेत्य संज्ञास्तीति' ( बृह० उप० २।४।१२ ) तच्चतन्यविशिष्टदेह एवात्मा । देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात् । प्रत्यक्षैकप्रमाणवादितया अनुमानादेः अनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् ॥
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स्वयं चैतन्य का
उनके मत से पृथिवी आदि चार महाभूत ही तत्त्व हैं ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ) | प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण आकाश तत्त्व को ये स्वीकार नहीं करते क्योंकि अ.क. अनुमान द्वारा सिद्ध होता है ] । जिस प्रकार किण्व आदि ( मादक द्रव्यों ) से मादक-शक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार शरीर के रूप में बदल जाने पर इन्हीं ( चार ) तवों से चैतन्य उत्पन्न होता है । इनके नष्ट हो जाने पर भी विनाश हो जाता है । ऐसा कहा भी है ( श्रुति -प्रमाण से भी यही बात सिद्ध होती है ) - ' ( आत्मा ) विज्ञान ( = शुद्ध चैतन्य ) के रूप में इन भूतों से निकल कर उन्हीं में विलीन हो जाता है, मृत्यु के बाद चैतन्य ( ज्ञान ) की सत्ता नहीं रहती' ( बृ० उप० २२४।१२ ) । अनएव उपर्युक्त चैतन्य से युक्त शरीर को आत्मा कहते हैं । देह के अलावा आत्मा नाम का कोई दूसरा भी पदार्थ है - कोई प्रमाण इसके लिए नहीं । ये केवल प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं; अनुमानादि को अस्वीकार करने से उनको प्रमाण नहीं माना जाता ।
विशेष - किण्वः एक प्रकार की ओषधियां बीज, जिससे शराब बनाई जाती थी । 'मुराया: प्रकृतिभूतो वृक्षविशेषनिर्यासः' अभ्य० ) | जैसे प्रकृति- अवस्था ( किण्व, मधु, शर्करादि ) में मादक शक्ति नहीं किन्तु उनकी विकृति - अवस्था ( शराब ) में मादकता आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, वायु आदि पदार्थो में चैतन्य न होने पर भी इनके विकार - रूप (शरीर ) में चैतन्य हो जाता है । तुलना करें