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सर्वदर्शनसंग्रहेपारं गतं सकलदर्शनसागराणा
मात्मोचितार्थचरिताथितसर्वलोकम् । श्रीशाईपाणितनयं निखिलागमज्ञं
सर्वज्ञविष्णुगुरुमन्वहमाश्रयेऽहम् ॥२॥ सभी दर्शन-रूपी समुद्रों के पार पहुंचे हुए, अपने अनुकूल तत्त्व के उपदेश से सभी लोगों को कृतार्थ करने वाले, सभी आगमों ( शास्त्रों) को जानने वाले, श्री शाङ्गपाणि के पुत्र, सर्वज्ञ-विष्णु नामक गुरु का मैं प्रतिदिन आश्रय लेता हूँ ( या अनुसरण करता हूँ )। [ आत्मोचितार्थ० = कॉवल के अनुसार इसका अर्थ है-'जिसने आत्मा शब्द के उचित अर्थ के द्वारा समस्त मानवजाति को सन्तुष्ट किया है' ] ॥ २ ॥
श्रीमत्सायणदुग्धाब्धिकौस्तुभेन महौजसा ।
क्रियते माधवार्येण सर्वदर्शनसंग्रहः ॥३॥ श्री-युक्त सायण-वंशरूपी क्षीर-सागर में कौस्तुभ-मणि के समान तथा महाप्रतापी माधवाचार्य के द्वारा ( सभी दर्शनशास्त्रों का संक्षेप ) यह 'सर्वदर्शनसंग्रह' बनाया जा रहा है ॥ ३ ॥ पूर्वेषामतिदुस्तराणि सुतरामालोड्य शास्त्राण्यसौ
श्रीमत्सायणमाधवः प्रभुरुपन्यास्यत्सतां प्रीतये। दूरोत्सारितमत्सरेण मनसा शृण्वन्तु तत्सज्जना
माल्यं कस्य विचित्रपुष्परचितं प्रीत्यै न संजायते ? ॥ ४॥ पहले के आचार्यों के अत्यन्त कठिन शास्त्रों का अच्छी तरह मन्थन करके, सायण के वंश में उत्पन्न, सामर्थ्यवान् माधव ने सज्जनों की प्रसन्नता के लिए ( उन शास्त्रों को ) इस जगह जमा किया; उसे सज्जन लोग मन से मत्सरता ( ईर्ष्या ) दूर हटाकर मुनें, क्योंकि रंग-बिरंगे फूलों से बनाई गई माला किसे प्रसन्न नहीं करती ? ॥ ४ ॥