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॥ श्रीः ॥
सर्वदर्शनसंग्रहः
'प्रकाश' व्याख्योपेतः
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वन्दे वाणी वराभीष्टां स्वगुरुं वनमालिनम् ।
कुर्वे व्याख्यां प्रकाशाख्यां सर्वदर्शनसंग्रहे ॥१॥ टीकां यद्यपि वैदुषीविमलितोमभ्यङ्करो निर्ममे
नैवं सायणमाधवस्य सरला जाता गभीरा गिरा। सर्वेषामुपकारमेव सुचिरं ध्यात्वा स्वभाषामयीं
व्युत्पत्तिप्रहितामिमां वितनुते व्याख्या मगोऽयं कविः ॥२॥ नाधीतं पदशास्त्रमप्यवगतः कोशो न सम्यङ् मया
साहित्येपि न साधना किल कृता तर्के सदा धर्षितः । वेदान्तादिविचक्षणैर्गुरुवरैविद्योपलब्धि हृदा
ध्यायं ध्यायमहं मुदं किल लभे ज्ञानं दिशत्वीश्वरः ॥ ३ ॥ ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए भारतीय-परम्परा का पालन करते हए मायण-माधव इसके आरम्भ में मंगलाचरण के श्लोक लिखते हैं
नित्यज्ञानाश्रयं वन्दे निःश्रेयसनिधि शिवम् ।
येनैव जातं मह्यादि तेनैवेदं सकर्तृकम् ॥१॥ जिसमें नित्यज्ञान स्थिर होकर रहता है, निःश्रेयस ( चरम सुख, मुक्ति ) का जो भाण्डार है ऐसे शिव को मैं नमस्कार करता हूँ; उससे ही पृथ्वी आदि ( द्रव्य ) उत्पन्न हुए हैं और उस ( शिव ) के कारण ही यह ( सारा संसार ) कर्तृयुक्त ( कहा जाता है )। [ इस आरम्भिक श्लोक के द्वारा ही माधवाचार्य निर्देश करते हैं कि ईश्वर कर्ता है और संसार उसका कार्य । न्याय-शास्त्र में ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने में यह भी एक तर्क है। पृथ्वी आदि द्रव्य तथा निःश्रेयस और नित्यज्ञान का विमर्श भी न्याय-वैशेषिकों के अनुकूल है । दर्शन-शास्त्र की मुख्य समस्यायें हैं-ईश्वर, मोक्ष, मलतत्त्व । इनका निर्देश आदि में हुआ है। ] ॥१॥