Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
३१ हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा-६ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( ते चेव) ये ही ऊपर कहे ( अस्थिकाया) पांच अस्तिकाय ( परियट्ठणलिंगसंजुत्ता) द्रव्योंका परिवर्तन करना है चिन्ह जिसका ऐसे काल सहित (तेकालियभावपरिणदा) तीनकाल सम्बन्धी पर्यायोंमें परिणमन करते हुए व (णिच्चा ) अविनाशी रहते हुए ( दवियभावं) द्रव्यपनेको ( गच्छंति ) प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ-पर्यायार्थिक नयसे वे ही पूर्वोक्त पंचास्तिकाय त्रैकालिक पर्यायों से परिणत होते हुए क्षणिक, अनित्य, विनश्वर हैं तथापि द्रव्यार्थिक नय से नित्य हैं इस प्रकार द्रव्यार्थि यायार्थि से निस्थानियामक हैं । जैसे धूम अग्निके बतानके लिये कार्यरूप लिंग है वैसे ही जीव, पुद्रलादि द्रव्योंका परिणमना या पलटना ही काल द्रव्यका चिह्न, गमक, ज्ञायक तथा सूचनारूप है। अर्थात् द्रव्योंके पलटने में कोई भी जो निमित्त कारण है वही परिवर्तन लिंग कालाणु या द्रष्यकाल है। यहाँपर कोई शंका करता है कि 'कालद्रव्यसंयुक्ता' ऐसा क्यों नहीं कहा, परिवर्तनलिंगसंयुक्ता ऐसा अस्पष्ट वचन क्यों कहा? इसका समाधान यह है कि पंचास्तिकायके प्रकरणमें कालकी मुख्यता नहीं है। क्योंकि पदार्थोंका नएसे पुरानापना होता है इस परिणतिरूप कार्य लिंगसे ही कालका जानपना होता है इसीलिये ही इस बातकी सुचनाके लिये परिवर्तनलिंग ऐसा कहा है। इन छः द्रव्योंके मध्यमें देखे, सुने, अनुभव, किये हुए आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदिको इच्छारूप सर्व परद्रव्योंके आलम्बनसे उत्पन्न जो संकल्प-विकल्प उनसे शून्य जो शुद्ध जीवास्तिकाय है उसका श्रद्धान, ज्ञान, व आचरणरूप अभेद रत्नत्रयमयी जो विकल्प रहित समाधि या समभाव उससे उत्पन्न जो वीतराग सहज अपूर्व परमानंद उसरूप स्वसंवेदन ज्ञानसे प्राप्त होने योग्य व अनुभवने योग्य अथवा उससे भरपूर शुद्ध निश्यचनयसे अपने ही शरीरके भीतर प्राप्त जो जीव द्रव्य है वही ग्रणह करने व अनुभवने योग्य है ।
इस तरह काल सहित पाँच अस्तिकायोंको द्रव्यसंज्ञा है ऐसा कथन करते हुए गाथा पूर्ण हूई ।।६।।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ये छहों द्रव्यपरस्पर अत्यन्त मिलाप रखते हुए भी अपने अपने स्वरूपसे गिरते नहीं हैं।
समयव्याख्या गाथा-७ अत्र षण्णा द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्तं ।