Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
कर्म वेसी योग्यताका सूचक है, पर बाह्य सामग्नीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं । कभी वैसी योग्यता के सद्भावमें भी बाह्य सामना नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है, किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है । उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है। अतः कर्मका स्थान वाह्य सामग्री नहीं ले सकती। अत: कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आती है। इसी बातको इष्टोपदेश पद्य ७ की टीकामें कहा है
मलविद्धमणेब्यक्तिर्यथा नेकप्रकारतः ।
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथा नेकप्रकारतः ।। अर्थ-जिस तरह मलके सम्बन्धसे मणिके अनेक रूप दीनने लगते हैं उसी तरह कर्मके सम्बन्धसे आत्माकी भी अनेक अवस्थाएं दीखने लगती है ।।
इसी प्रकार पद्य ७ की टीकामें भी मदिराका दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया है कि जीष मोहनीय कोदयके कारण पदार्थोका वास्तविक स्वरूप नहीं जान सकता । इष्टोपदेशका वह पद्म इस प्रकार है
० मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवः ॥७॥ अर्थ-जिस तरह मादक कोदोके खानसे उन्मत्त हुआ पुरुष पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप नहीं जानता; उसी प्रकार मोहनीय कर्मके द्वारा आच्छादित ज्ञान भी पदार्थोके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता ॥७॥
कर्म बलवान् है, उदयमें आकर नवीन कोका बन्ध जीवके साथ कर देता है । ऐसा ही श्री अमृतचन्द्र मूरिने कहा है
कित्ववापि समुल्लसत्यवशतो यत् कर्म बंधाय तत् ।।११०|-कलश अर्थ-किन्तु आत्मामें अवशपने जो कर्म प्रगट होता है वह बंधका कारण है ।।११।। श्री पं० फूलचन्द्रजी भी कर्मको बलवत्ताको इन शब्दोंमें स्वीकार करते हैं
कर्म तो आत्माकी विविध अवस्थाओंके होने में निमित्त है और उसमें ऐसी योग्यता उत्पन्न करता है जिससे वह अवस्थानुसार शरीर वचन मन और श्वासोच्छ्वासके योग्य पुद्गलोंको योग द्वारा ग्रहण करके तद्रूप परिण माता है। पचाध्यायी पृ० १५९ विशेषार्थ (वर्णी ग्रन्थमाला)
क्रमोंकी सदा एकसी दशा नहीं रहती । कभी कर्म बलवान होता है और कभी जीव बलबान हो जाता है । जब जीव बलवान् होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है । कहा भी है
कत्थ वि बलिओ जीवो कत्थ वि कम्मा इंति बलिया।
जीवस्स य कम्मस्स य पुष विरुद्धाइ वइराइ ।।-इष्टोपदेश गा.३१की टी० अर्थ-कभी यह जीव बलवान हो जाता है और कभी कर्म बलवान् होता है। इस तरह जीव और कमोंका अनादि कालसे परस्पर विरुद्ध बैर है ।।
इस कर्मकी बलवत्ताके कारण यह जीव अनादि कालसे चतुर्गति भ्रमण कर रहा है इस बातको श्री अकलेकेदेव राजवातिक पृ० २ में कहते हैं