Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका १ और उसका समाधान अथवा मुक्त जीवके भी विकारी भावोंका प्रसंग ना जायगा। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि किसी में जाना अधिक है और किसी में जान हीन है। एक ही पुरुष जानकी हीनाविकता देखी जाती है। यह तरतमभाव निष्कारण नहीं हो सकता है। अतः ज्ञानमें जो तर-तमभावका कारण है वह ज्ञानावरण कगं ह । कहा भी है--
एदस्स पमाणस्स वटिहाणित रतमभावो ण ताब णिक्कारणो, वढि-हाणोहि विणा एगसरूवेणावठाणप्पसंगादो। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदग्वं । जंतं हाणितर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्ध ।-जयधवल १-५६
इसका तात्पर्य भाव ऊपर दिया जा चुका है ।
इस कर्मोदयसे जीवकी नाना अवस्था तथा विचित्र विकारी भाव हो रहे हैं, जिनका समयसार आदि ग्रन्योंमें विवेचन किया है और वह इस प्रकार है
समयसारकी बत्तीसवीं गाथामें आत्माको 'भाव्य' और फल देनेकी सामर्थ्य सहित उदय होनेवाले मोहनीय कर्मको ‘भावक' बतलाया है। एकसौ-अठानवी गाथामं कर्मोदय विपाकसे उत्पन्न होनेवाले विविध भावोंको आत्मस्वभाव नहीं बतलाया है । गाथा १९९ में
पुम्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हदि एसो। और इसकी टीकामेंअस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविषाकप्रभत्रोऽयं र.गरूपो भावः ।
ये वाक्य दिये हैं, जिनमें बतलाया है कि राग पुद्गलकर्म है और पृद्गल कमके विपाककर उत्पन्न यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है । और गाधा २८१ की टीकामें लिखा है कि रागादिक भाव कर्मविपाक उदयसे उत्पन्न हुए हैं ।
• पंचास्तिकायकी गाथा १३१ की टीका
इह हि दर्शनमोहनीयविपाककल्पपरिणामता मोहः, विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषी।
इन वाक्योंमें बतलाया है कि निश्चयसे इस जीवके जब दर्शनमोहनीय कर्मका उदय होता है तब उसके रस विपाकसे समुत्पन्न अश्रद्धानरूप भावका नाम मोह है।
गाथा १४८ की टीकामे बताया है कि जीवके राग द्वेष मोहरूप परिणाम मोहनीय कर्मके विपाकसे उत्पन्न हए विकार है
जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः । • १५० वी गाथाको टीका बतलाया है कि वास्तवमें संसारो जीय अनादि मोहनीय कर्मने उक्ष्यका अनुसरण करनेवाली परिणतिसे अशुद्ध है। और गाथा १५६ में बतलावा है कि वास्तवमै मोहनीय कर्मक उदयका अनुसरण करनेवाली परिणतिके यशसे रंजित उपयोगबाला वर्तता हुआ जीव परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको करता है।
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥१-६६11-परमात्मप्रकाश