Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और जसकी समीक्षा . मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि ति णासंकणिज्ज, जीवादी अभिण्णम्हि पोग्गलदब्वे कम्मसष्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।
जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है। शंका-ऐसा होनेपर जीवको मोहनीय कर्मपना प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जीवसे अभिन्न (विशेष संयोगरूप, परस्पर विशिष्ट एक क्षेत्रावगाही) कर्मसंजक पृद्गल-द्रव्य में उपचारसे कर्तापनेका आरोप कर नैसा कहा है।
इस आगम घचनमें 'उवयारेण' और 'आरोविय' पद ध्यान देने योग्य हैं । स्पष्ट है कि कार्यका निरुपादक यस्तुतः उपादान कर्ता ही होता है। निमित्त में तो उपचारसे कतपिनेका आरोग किया जाता है ।
वतीय दौर
शंका द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है सा नहीं ?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते है क्या वे व्यकर्मोदय के बिना होते हैं या दून्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। संसारी जीवका जो अन्ममरणरूप चतुर्गति भ्रमण प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है क्या यह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतन्त्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गति भ्रमण कर रहा है ?
___ आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्य में दिया गया है-यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्य के ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त कतन्किर्मफ्री अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है।
यह तो सर्व सम्मत है कि जीव अनादि कालसे विकारी हो रहा है। विकारका कारण कर्मबन्ध है, क्योंकि दो पदार्थोके परस्पर बन्ध बिना लोकमें विकार नहीं होता । कहा भी है
द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् । -पदमनन्दिपंचविंशति २३-७ । यदि क्रोध आदि विकारी भावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जाये तो उपयोगके समान ये भी जीवक स्वभाव भाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्ष अभावका प्रसंग आजावेगा, क्योंकि
सदकारणवन्नित्यम् । -आप्तपरीक्षा कारिका २ टीका जो सत् (मौजूद) है और अकारण है वह नित्य होता है । )