Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा नन्वैवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह-अन्यः पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोनिमित्तमात्रं स्यात्, तत्र योग्यताया एव साधकत्वात् ।
कस्याः को यथा-~इत्यत्राह-गतेरित्यादि । अयमों यथा युगपद्भाविगतिपरिणामोन्मुखानां भावानां स्वकीया गतिशक्तिरेव गतेः साक्षाज्जनिका । तवैकल्ये तस्याः केनापि कर्तुमशक्यत्वात् । धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्राहकद्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणमात्र स्यात् । एवं प्रकृतेऽपि । अतो व्यवहारादेव गुर्वादेः शुश्रूषा प्रतिपत्तव्या।
हे भद्र ! अज अर्थात् तत्त्वज्ञानको उत्पत्ति के लिए अयोग्य अभव्य आदि विलपनेको अर्थात् तत्त्वज्ञपनेको धर्माचार्य आदिके हजारों उपदेशोंसे भी नहीं प्राप्त होता । कहा भी है
कार्यको उत्पत्तिमें स्वाभाविक क्रिया गुण अपेक्षित हैं, क्योंकि संकड़ों व्यापार करनेपर भी बक तोतेके समान नहीं पढ़ाया जा सकता।
___उसी प्रकार विज्ञ अर्थात् तत्त्वज्ञानरूपसे परिणत हुआ जीव अझपनेको अर्थात् तत्त्वज्ञानसे भ्रंशको हजारों उपायोंके द्वारा भी नहीं मारत होता । दीपगार महा है ..
भयसे भागने हुए समस्त लोकपर बनके गिरनेपर भी मोक्षमार्गमें उपशमको प्राप्त हुए जीव योगसे पलायमान नहीं होते ! तो फिर बोररूपी प्रदीपसे जिनका मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव शेष परीषहोंसे चलायमान कैसे हो सकते है।
किस योग्यताका कौन निमित्त है । यथा-इसलिए यहां कहा है-गतेरित्यादि ।
जिस प्रकार एक साथ होनेवाली गति परिणामके सम्मुख हुए पदार्थोकी अपनी गति शक्ति ही गतिकी साक्षात् अनिका है। उसके विरुद्ध योग्यताके होनेपर उसे कोई भी करने में समर्थ नहीं है । धर्मास्तिकाय द्रव्य तो गतिका उपग्राहक वस विशेष होकर उस (योग्यता) का सहकारी कारणमात्र है । इसीप्रकार प्रकृत्तमें भी जानना चाहिये । इसलिए व्यवहारसे ही गुरु आदिकी शुश्रूषा जाननी चाहिए।
इस प्रकार इष्टोपदेशके उक्त आगम वचन और उसकी टीकासे स्पष्ट ज्ञात होता है कि निमित्त कारणों में पूर्वोक्त प्रकारसे दो भेद होनेपर भी जनको निमित्तता प्रस्पैक द्रव्यके कार्यके प्रति समान है । कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं ।
यह ठीक है कि प्रश्न १ का उत्तर देते हुए समयभारकी ८० से ८२ तकको जिन तीन गाथाओंका उद्धरण देकर निमित्त-नैमित्तिकभाव दिखलाया गया है वहाँ कर्तृ-कर्म सम्बन्धका निर्देश मात्र इसलिए किया गया है ताकि कोई ऐसे भ्रममें न पड़ जाय कि यदि आगममें निमित्त में कर्तृ पर्नेका व्यवहारसे व्यपदेश किया गया है तो वह यथार्थमें कर्ता बनकर कार्यको उत्पन्न करता होगा। वस्तुतः जैनागममें कर्ता तो उपादानको ही स्वीकार किया है और यही कारण है कि जिनागममें कर्ताका लक्षण 'जो परिणमन करता है वह कर्ता होता है' यह किया गया है । समयसार फलशमें कहा भी है
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया 11५१।। जो परिणमन करता है वह कर्ता है, जो परिणाम होता है वह कर्म है और जो परिणति होती है वह किया है । वास्तवमें ये तीनों अलग नहीं है।