Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ- व्य अपनी-अपनी पयरका उत्पतिक प्रति यद्यपि स्वयं ही प्रवृत्ति करते है तथापि बाह्य सहायकके बिना उनकी यह प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः उन्हें प्रवर्तानेवाला काल ट्रष्य है ।
आपने जो प्रवचनसारकी गाथा १६९ तथा उसकी भी अमृतचन्द्र सुरिकृत टीकाका उद्धरण दिया है उसमें स्वयं शब्दका अर्थ 'स्वयमेव' (अपने आप) न होकर अपने रूप' है। इसके अतिरिक्त उनसे जो यह फलितार्थ निकाला है कि दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्वायों में कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है उसका आशम केबल उपादान कारणको दृष्टिसे है, निमित्तकारणकी दृष्टिरो नहीं।
समयसारकी गाथा १०५ में जो उपचार शब्द आया है वह इस अर्थका द्योतक है कि पुद्गलका कर्म रूप परिणमन पुद्गल में ही होता है, जीव रूप नहीं होता। किन्तु जीवये. परिणामोंका निमित्त पाकर होता है अर्थात् जीव पुद्गल कर्मोका उपादान कर्ता नहीं, निमित्त कर्ता है।
आशा है आप हमारे मूल प्रश्नका उत्तर देनकी कृपा करेंगे ।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गोतमो गणी। मंगल कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ||
शंका १ द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारी भाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या
नहीं?
प्रतिशंका २ का समाधान प्रतिशंका नं० २ में शंकारूपमें उपस्थित किये गये विषयोंका वर्गीकरण
(१) पंचास्ति गा ८८ तथा ५५-५८, प्र० सार० गा० ११५; स० सार गा• १०० को टीका, द्रव्य सं० गा० ८. स्वा० कातिके गा० २११: दे० स्तो लो०४; स० सार गा० १३ टीका; ससार कलश १७५; स० सार गा० ८४; आप्तप० पृ० २४६; स० सार गा० ४५, धवला पु० ६ पृ० ६; और धवला प० ५ पु० १८५-२२३ तथा पुस्तक १६ पृष्ठ ५१२; इस प्रकार विविध ग्रन्थोंके लगभग १७ प्रमाणोंके आधारसे निमित्त हेतुकर्तृता सिद्ध करते हुए संसारी जीप और कर्मोदयमें जो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है उसे गौण दिखानेका प्रयत्न किया गया है ।
(२) पंचास्ति० गा० ८९ का उद्धरण किसी भी प्रकारके निमित्तिको व्यवहार हेतु बतानेके लिए उद्धृत किया गया है, पर उसे प्रकृतमें असंगत बतलाया गया है ।
(३) पंचारित मा० ८७-९४ तथा सर्वा सि., अ० ५ सू० २२ के उद्धरणों द्वारा उदासीन निमित्तोंकी कार्यके प्रति अनिवार्य निमिप्तता सिद्ध की गई है। .
(४) प्र. सार मा० १६९ में स्वयमेव पदका अर्थ प्रति शंकामें अपने आपका निषेधकर 'अपने रूप' किया गया है।
(५) स. सार, गा० १०५ में आये हुए उपचार शब्दके अर्थको बदलनेका प्रयत्न किया गया है ।