Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रवचनसारको निम्नलिखित गायामें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने जीवकी मनुष्य आदि पर्यायोंका कर्मको कर्ता माना है
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कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण ।
अभिभूय परं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥११७॥
इसकी टीका श्री अमृतचन्द्र सूरिने भी इसकी पुष्टि की हैं। रामयसारकी निम्नलिखित गाथाकी टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरिने निमित्तकर्ता स्वीकृत किया है । यथाअनित्य योगोपयोगाचेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ ।
द्रव्यसंग्रहमें लिखा है
मुनस्यारी पणा वच्हारो दु णिच्छपदी । चेकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥ ८ ॥
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा निम्नलिखित गाया में लिखा है कि पुद्गलमें ऐसी शक्ति है कि यह आत्मा केवलज्ञानका विनाश कर देती है-
कवि अपुत्रा दीसद पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणासहायो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥ २११ ॥
देवागमकी
दोषावरण मोहनिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तलक्षयः ॥४॥ कारिका सम्बन्धी अष्टशती में श्री अकलङ्कदेवने लिखा है कि-वचनसामर्थ्यादज्ञानादिर्दोषः स्वपरपरिणामहेतुः ।
इसकी व्याख्या में श्री विद्यानन्द स्वामीने अष्टसहस्त्री में अज्ञान, मोह आदि दोष तथा ज्ञानावरण, मोहनीय आदि पौद्गलिक कम में परस्पर कार्य कारणभाव विस्तार से बतलाया हूँ ।
समयसारकी गाथा १३ की टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरिने लिखा है
तत्र विकार्य-विकारकोभयं पुण्यं तथा पापं आस्राव्यास्रावको भयमा स्रवः संवार्य संवारको - भयं संवरः ""स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रव संवर निर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च जीवाजीवाविति ।
श्री अमृतचन्द्र सूरिने समयसारकलदा १७४ में आत्मा रागादि विकारभाय केवल आत्मामात्र
( उपादान) में नहीं होता। उसके लिए पर (कर्म) सम्बन्ध आवश्यक कारण बतलाया है ।
न जातु रागादिविकारभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥ १७५ ॥ समयसारको निम्नलिखित गाथामें व्यवहारसे जीवको द्रव्यकमका कर्ता बतलाया हैबहारस्स दु आदा पुद्गलकम्मं करेदि णेर्यावहं ॥८४॥
श्री विद्यानन्द स्वामीने कर्मका लक्षण करते हुए आप्तपरीक्षा के पृष्ठ २४६ पर लिखा हैजीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति स परतन्त्रीक्रियते वा यंस्तानि कर्माणि ।