Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस प्रकार परमागमके इस उद्धरणसे यह फलित होता है कि दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें निमित्तवैगिन्धि व्यहै, नहीं
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दो द्रव्योंको विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता कर्मसंबंध क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण करते हुए प्रवचनसारमें कहा है
कम्मणपाओग्गा खंधर जीवस्स परिणई पप्पा |
गच्छति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१२- ७७।११६९॥
अर्थ - कर्मस्वके योग्य स्कन्ध जीवकी परिणतिको प्राप्त करके कर्मशावको प्राप्त होते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं है ।। २ ७७। १६९ ।।
इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अमृतचन्द्र आचार्य उक्त गाथाकी टीकामे लिखते हैंयतो हि तुल्यक्षेत्रावगाहजीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेनापि कर्मत्वपरिणमनशांक योगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधाते न पुद्गल पिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥ १६९॥
अर्थ -- कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध तुल्य क्षेत्रावगाहरो युक्त जीवके परिणाममात्रका - जो कि बहिरंग साधन है उसका आश्रय लेकर जीव उनको गरिमानेवाला नहीं होने पर भी स्वयमेव कर्मभावसे परिणमित होते हैं। इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोके कांपनेका कर्त्ता आत्मा नहीं है ।। १६९ ।।
इसीप्रकार इस उल्लेखसे यह भी फलित होता है कि कर्मरूप पुद्गलपिण्ड जीवके भावोंका कर्ता नहीं है ।
इसप्रकार दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमे कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है, फिर भी आगममें जहाँ भी दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता कर्मसंबंध कहा है सो वह वहाँपर उपचारमात्रसे कहा है ।
जीवहि हेदुभूदे बंधस्स दु परिसदृण परिणामं ।
जीवेण कर्द कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेन ॥ १०५ ॥ ( समयसार )
अर्थ – जीव निमित्तभूत होनेपर कर्मवन्धका परिणाम होता हुआ देखकर जीवने कर्म किया यह उपचारमात्रसे कहा जाता है ।। १०५ ।।
इसकी टीका में इसी विषयको स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं---
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तसुतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्प - विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव न तु परमार्थः ।। १०५ ||
अर्थ -- इस लोक में वास्तवमे आत्मा स्वभावसे पौद्गलिंक कर्मका निमित्तभूत न होने पर भी अनादि अज्ञान के कारण उसके निमित्तभूत अज्ञान भावरूप परिणमन करनेसे पुद्गल कर्मका निमित्तरूप होनेपर पुद्गल कर्मकी उत्पत्ति होती है, इसलिए आत्माने कर्मको किया ऐसा विकल्प उन जीवोंके होता है जो निर्विकल्प विज्ञानघनसे भ्रष्ट होकर विकल्पपरामण हो रहे हैं । परन्तु आत्माने कर्मको किया यह उपचार ही है, परमार्थ नहीं ।। १०५ ।।