Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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द्वितीय दौर
: २ :
नमः श्रीवर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां द्विद्या दर्पणायते ॥
शंका १
द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ? प्रतिशंका २
इस प्रश्नका उत्तर जो आपने यह दिया है कि 'व्यवहारसे निमिस-नमित्तिकसम्बन्ध है, कर्त्ता कर्म सम्बन्ध नहीं हूँ सो यह उत्तर हमारे प्रश्नका नहीं है, क्योंकि हमने द्रव्यकर्म और आत्माका निमित्तनैमित्तिक तथा कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं पूछा है ।
इस विषय में आपने जो समयसारकी गाथा ८०, ८१, ८२ का प्रमाण दिया है वह प्रमाण आपके उत्तरके विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इन गाथाओंका स्पष्ट अर्थ यह है कि-
'पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमन जीवके भावोंके निमित्तसे होता है और जीवके भाषका परिणमन पुद्गल कर्मके निमित्तसे होता है ।' ऐसा ही अर्थ आपने भी किया है। किन्तु ८१वीं गाथाका अर्थ करते हुए आपने जो उसमें विशेषता ( पर्याय) शब्दका प्रयोग किया है यह मूल गाथारो विपरीत है, क्योंकि विशेषता (पर्याय) परिणामको छोड़कर अन्य कुछ नहीं है । इसके सिवाय आपने इन गाथाओंका जो निष्कर्ष निकाला है वह भी बाधित है। साथ ही इस सम्बन्ध में जो कर्तृकर्म सम्बन्धका निषेध किया है वह भ्रम उत्पादक है, क्योंकि हमारा दन निमित्त-कल के उद्देश्यसे ही है उपादान कर्ताके उद्देश्य से नहीं है । जैसा कि पञ्चास्तिकायकी ८८वीं गाथाकी टीकामें श्री अमृतचन्द्र सूरिने स्पष्ट रूपसे ध्वजा फहराने में वायुको हेतुकर्तृता बतलाई है।
यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽऽवलोक्यते । इसी टीका
यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुरङ्गो अश्वारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते । वाक्य द्वारा घुड़रावारके रुकने में रुके हुए घोड़े को हेतुकर्ता माना है ।
पञ्चास्तिकाय की निम्नलिखित ५५ और ५८वीं गाथाओं में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि कर्म प्रकृतियां जीवके नर-नारकादि पर्यायरूप भावोंके सत्का नाश और असेत्का उत्पाद करती हैं ।
- तिरिय मणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी । कुब्र्व्वति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ॥ ५५ ॥ कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा । खइयं खओवसमियं लम्हा भावं दु कम्मकर्द ||५८||