Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान अतएव निमित्तकर्ताको व्यवहार (उपचार) से ही कर्ता मानना युक्ति-संगत है, क्योंकि एफ द्रम्पका कर्तधर्म दूसरे द्रध्यमें नहीं उपलब्ध होता । मात्र कार्यमें कौन द्रव्य उस समय निमित्त हेतु है यह दिखलाने के लिए ही कर्ता आदि रूपसे निमित्तका उपचारसे उल्लेख किया जाता है। स्पष्ट है कि प्रथम प्रश्नका जो उत्तर दिया गया है वह यथार्थ है।
(२) पञ्चास्तिकाय माथा ८९ में निःसन्देहरूपसे उदासीन निमित्तकी व्यवहारहेतुप्ता सिद्ध की गई है। पर इतने मात्रने क्रियाके द्वारा निमित्त होनेवाले निमित्तोंको व्यवहार हेतु माननेमें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि अभी पूर्वमें इन्टोपदेश टीकाका जो उद्धरण दे आये है उसमें स्पष्टरूपसे ऐसे निमित्तोंको व्यवहार हेतु बतलाकर इस दृष्टि से दोनोंमें समानता सिद्ध की गई है।
(३) ऐसा नियत है कि प्रत्येक व्यके किसी भी कार्यका पृथक् उपादान कारणके समान उसके स्वतन्त्र एक या एकसे अधिक निमित्त कारण भी होते हैं । इसीका नाम कारफ-साकल्य है। और इसीलिए जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभय निमित्त से कार्यको उत्पत्ति होती है। श्री समन्तभद्र स्वामीने इसे द्रव्यगत स्वभाव इसी अभिप्रायसे कहा है । वे लिखते हैं
नाही तगेमाभिमाले कार्येषु ते तव्यमतः स्वभावः ।
नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाभिवंद्यस्त्वमूषिर्बुधानां ।।-स्वयंभू-स्तोत्र ॥६॥ कार्योंमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समयता होती है, यह द्रव्यगत स्वभाव है । अन्यथा अर्थात् . ऐसा स्वीकार नहीं करनेपर पुरुषोंकी मोक्ष-विधि नहीं बन सकती। यही कारण है कि ऋषि स्वरूप आप वृधजनोंके द्वारा वन्दनीय है।
यह तो है कि कार्योमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है, क्योंकि ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है कि जब निश्चय 'उपादान अपना कार्य करता है तब अन्य द्रव्य पर्यायद्वारा उसका व्यवहार हेतु होता है। पर नियम यह है कि प्रत्येक समयमै निमित्तको प्राप्ति उपादानके अनुसार होती है । तभी जीवोंको मोक्षविधि भी बन सकती है । जैसा कि भावलिंगके होनेपर द्रव्यलिंग होता है इस नियमसे भी सिद्ध होता है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होने के पूर्व ही द्रव्यलिंग स्वीकार कर लेता है पर उस द्वारा भावसिंगकी प्राप्ति द्रयलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है । किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिंग रहता ही है । तीर्थकरादि किसी महान पुरुषको दोनोंको एक साथ प्राप्ति होती हो यह बात अलग है, इसलिए प्रत्येक कार्यमें निमित्त अनिवार्म है ऐसा मानना यद्यपि आगमविरुद्ध नहीं है, पर इस परसे यदि कोई यह फलितार्थ निकालना चाहे कि जब जैसे निमित्त मिलते है तब वसा कार्य होता है आगम-संगत नहीं है। उपचारसे ऐसा कथन करना अन्य बात है और उसे यथार्थ मानना अन्य बात है।
(४) प्रवचनसार गाया १६९ में 'स्वयमेंब' पदका अर्थ स्वयं ही है अपने रूप नहीं। इसके लिए समयसार गाथा ११६ आदि तथा १६८ संख्याक गाथाओंका अवलोकन करना प्रकृतमें उपयोगी होगा। आगममें सर्वत्र 'स्वयमेव' पद 'स्वयं ही' इसी अर्थमें व्यवहृत हुआ है । यदि कहीं 'अपने रूप' अर्थ किया गया हो तो वह प्रमाण सामने आना चाहिये ।
(५) ग़मयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्थ प्रथम प्रश्नके उत्तरमें किया गया है वह अर्थ संगत है । इसकी पुष्टि भवला पुस्तक ६ पृष्ट ५९ मे होती है 1 प्रमाण इस प्रकार है