Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ? और उसका समाधान
समाधान इस प्रकार है-
(१) प्रतिशंका १ में विविध प्रमाण देकर जो संमागे जीव और कर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है सो ऐसा करने में क्या उद्देश्य रहा है यह समझ में नहीं आया। यदि हेतुकर्तृता सिद्ध करते हुए निमित्तों में उदाशीन निमित्त और प्रेरक निमित्त ऐसा भेद करनेका अभिप्राय रहा हो तो वह इष्ट है, क्योंकि पंचास्तिकाय गाथा ८८ में यह भेद स्पष्ट पदोंमें दिखलाया गया है । परन्तु वहाँ ऐसे भेदको दिखलाते हुए भी उक्त वचनके आधारसे यदि यह सिद्ध करनेका अभिप्राय हो कि प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा, क्योंकि 'हेतुकर्तृ' पदका व्यपदेश निमित्तमात्रमें देखा जाता है ऐसा आगम प्रमाण । सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है
यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति । यथा शिष्यो अधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति ? नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृ व्यपदेशो दृष्टः । यथा का रीषोऽग्निररूपापयति । एवं कालस्य हेतुकर्तृता । अर्थ - शंका – यदि ऐसा है जो काळ क्रियाश्या होता है यया शिष्य पढ़ता है, अध्यापक पढ़ाता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि निमितमात्र में भी हेतुक व्यपदेश देखा गया है । यथाकण्डेको अग्नि पढ़ाती है । इस प्रकार कालको हेतुकर्तॄता है ।
यह आगमवचन है। इससे यह ज्ञात तो होता है कि निमित्तकारण दो प्रकारके हैं - एक वे जो अपनी किया द्वारा अन्य द्रव्यके कार्य में निमित्त होते हैं और दूसरे वे जो चाहे क्रियावान् द्रव्य हों और चाहे अक्रियावान् श्रभ्य हों; परन्तु जो क्रिया के माध्यम से निमित्त न होकर निष्क्रिय क्योंके समान अन्य द्रव्योंके कार्य में निमित्त होते हैं | आचार्य पूज्यपाद सब निमित्तों को समान मानते हैं इस सिद्धान्तकी पुष्टि उनके द्वारा रचित इष्टोपदेशके इस यचनसे भी होती है
नाशो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतैर्धर्मास्तिकायवत् ।। ३५ ।।
अर्थ — अज्ञ विज्ञपनेको प्राप्त नहीं होता और विज्ञ अपनेको प्राप्त नहीं होता । किन्तु अन्य द्रव्य अपनी विवक्षित पर्यायके द्वारा उस प्रकार निमित्त है जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गतिका निमित्त है ॥ ३५ ॥ इसका स्पष्टीकरण करते हुए इसी श्लोकको टीकामें लिखा है
भद्र ! अज्ञस्तस्त्रज्ञानोत्पत्त्ययोग्योऽभव्यादिविज्ञत्वं तस्वज्ञत्वं धर्माचार्याद्युपदेशसहस्रेणापि न गच्छति । तथा चोक्तम्
स्वाभाविकं हि निष्पत्ती क्रियागुणमपेक्ष्यते । न व्यापारशतेनापि शुकवत्पाठ्यते नकः ॥
तथा विज्ञस्तत्त्वज्ञानपरिणतोऽज्ञत्वं तत्त्वज्ञानात्परिभ्रंशम्पाय सहस्रेणापि न गच्छति । तथा चोक्तम्
बच्चे पतत्यपि भयद्भुतविश्वलोके मुक्ताध्वनि प्रशमिनो न चलन्ति योगात् । बोधप्रदीपहृतमोहमहान्धकाराः सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु ||